पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१०७

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सतजुगि सतु तेता जगी दुआपरि पूजाचार । तीनौ जुग तीनौ दिड़े कलि केवल नाम अधार ॥ 1 ॥ ॥ पारू कैसे पाइबो रे ॥ मोसउ कोऊ न कहै समझाइ ॥ जा ते आवागवनु बिलाइ ॥ ॥ ॥ रहाउ ॥ बहु विधि धरम निरुपीऐ करता दीसै सभ लोड़ | कवन करम ते छूटीऐ जिह साधे सभ सिधि होइ ॥ 2 ॥ करम अकरम बीचारीऐ संका सुनि बेद पुरान | संसा सद हिरदै बसै कउनु हिरै अभिमानु ॥ 3 ॥ बाहरु उदक पखारिएं घट भीतर विविध बिकार । सुध कवन पर होइबो सुच कुंचर बिधि बिउहार ॥ 4 ॥ रवि प्रगास रजनी जथा गति जानत सभ संसार । पारस मानो ताबो छुए कनक होत नहीं बार ॥ 5 ॥ परम पारस गुरु भेटीऐ पूरब लिखत लिलाट । उनमन मन मन ही मिले छुटकत बजर कपाट ॥ 6 ॥ भगति जुगति मति सति करी भ्रम बंधन काटि बिकार । सोई रसि बसि मन मिले गुन निरगुन एक बिचार ॥ 7 ॥ अनिक जतन निग्रह कीए टारी न टरै भ्रम फांस । प्रेम भगति नहीं उपजै ता ते रविदास उदास ॥ 8 ॥ जगी - यज्ञ | दिड़े- दृढ़ | आवागवनु - आवागमन | बिलाई – नष्ट हो, - समाप्त हो । लोइ - लोग । हिरै - दूर करे । उदकि- पानी । घट - शरीर । - - - पखारिऐ - धोएं। कुंचर - हाथी । रवि प्रगास- सूर्य का प्रकाश । रजनी - रात्रि | - - - उनमन - सांसारिक विषयों से उदासीन। बजर कपाट - मजबूत दरवाजा । अनिक- अनेक । निग्रह - रोकना, मन-इंद्रियों को वश में करना । टारी न टरै – हटाने से नहीं हटती। फांस - फन्दा | 110 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास