पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/११५

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जिनि पीआ सार रस तजै आन रस । होइ रस मगन डारे बिखु खोइ ॥ 2 ॥ पंडित सूर छत्रपति राजा । भगत बराबरि अउरुन कोइ ॥ जैसे पुरैन पात रहै जल समीप । भनि रविदास जनमे जगि ओइ ॥ 3 ॥ बैसनो—वैष्णव, हरिभक्त | रंकु - निर्धन । ईसुरु – ईश्वर, राजा, धनिक । ख्यत्री – क्षत्रिय। चंडाल – चण्डाल । पुनीत – पवित्र | तारै कुल दोई - दोनों - - - ( माता-पिता के ) कुलों को तार देता है । धंनि - धन्य । गाउ – गांव । ठाउ स्थान। लोइ – लोग। सार रस – भक्ति का रस । आन- -दूसरे । आन रस- - विषय भोग । पुरैन पात - कमल का पत्ता । भनि- कहना है । जनमे जग ओई- उन्हीं का संसार में जन्म लेना सार्थक है । मैं बेदनि कासनि आंखूं, हरि बिन जिव न रहै कस राखूं ॥ टेक ॥ ॥ जिव तरसै इक दंग बसेरा, करहु संभाल न सुर मुनि मेरा । बिरह तपै तन अधिक जरावै, नींद न आवै भोज न भावै ॥ 1 ॥ सखी सहेली गरब गहेली, पिउ की बात न सुनहु सहेली । मैं रे दुहागनि अघ कर जानी, गया सो जोबन साध न मानी ॥ 2 ॥ 118 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास