पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/११६

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तू साईं औ साहिब मेरा, खिदमतगार बंदा में तेरा । कह रैदास अंदेसा येही, बिन दरसन क्यों जिवहि सनेही ॥ 3 ॥ बेदनि – वेदना, विहर की पीड़ा । आखूं - कहूं । जिव- जीव । तरसै– आकुल। दंग –विस्मित | बसेरा - आश्रम स्थान | जरावै- जलाता है, तड़पता है। भोज – भोजन । गरब गहेली - गर्वीली । दुहागिन - अभागिनी । अघ- पाप । अघ कर जानी – पाप करना ही जाना है। खिदमतगार - सेवक । जिवहि- जिए । सनेही – प्रभु से प्रेम करने वाला, प्रेमी साधक । - दारिदु देखि सभ को हसै ऐसी दशा हमारी । असट दसा सिधि करतलै सभ कृपा तुम्हारी || जू जानत मैं किछु नहीं भवखंडन राम । सगल जीअ सरनागती प्रभ पूरन काम ॥ 1 ॥ रहाउ ॥ जो तेरी सरनागता तिन नाही भारु । ऊंच नीच तुम ते तरे आलजु संसारु ॥ 2 ॥ कहि रविदास अकथ कथा बहु काइ करीजै । जैसा तू तैसा तुही किआ उपमा दीजै ॥ 3 ॥ 'तू' - दारिदु – दरिद्र, निर्धन । असट दसा सिधि - अणिमा आदि आठों सिद्धियां । भवखंडन–जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त करने वाला । जीअ - जीव । भारु - बोझ, सांसारिक जीवन की चिन्ताओं का बोझ । आलजु - झंझटों से भरा हुआ, आज तक, निर्लज्ज । काइ – क्या । भार, संत रविदास वाणी / 119