पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/११७

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ज्यों तुम कारन केसवे, अंतरु लव लागी । एक अनूपम अनुभवी, किमि होइ विभागी ॥ टेक ॥ इक अभिमानी चातृगा, विचरत जग माहीं । यद्यपि जल पूरन महीं, कहूं वा रुचि नाहीं ॥ 1 ॥ जैसे कामी देखि कामिनी, हृदय सूल उपजाई । कोटि बैद बिधि ऊचरै, वाकी विथा न जाई ॥ 2 ॥ जो तेहि चाहे सो मिलै, आरत गति होई । कह रैदास यह गोप नहिं जानै सब कोई ॥ 3 ॥ केसव - भगवान का एक नाम । केसबे – हे केशव । अंतरु लव- हार्दिक प्रेम । किमि – कैसे। विभागी – विभक्त, पृथक, खण्डित। चातृगा- चातक पक्षी । महीं— पृथ्वी । कहूं- कहीं भी । वा – उस की । सूल – शूल, वेदना । ऊचरे- उपचार करें। वाकी - उस की । विथा - व्यथा, काम वासना की पीड़ा । आरत गति – आर्तगति, भगवान के विरह में बेचैन साधक की अवस्था । गोप-गुप्त | - प्रभू जी संगति सरन तिहारी । जग जीवन राम मुरारी ॥ टेक ॥ गलि गलि को जल बहि आयो, सुरसरि जाय समायो । संगत के परताप महानतम, नाम गंगोदक पायो ॥ 1 ॥ स्वांति बूंद बरसै फनि ऊपर, सीस विषै होइ जाई । ओही बूंद कै मोती निपजै, संगति की अधिकाई ॥ 2 ॥ 120 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास