पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भगति ऐसी सुनहु रे भाई । आइ भगति तब गई बड़ाई || टेक ॥ कहा भयो नाचे अरु गाये, कहा भयो तप कीन्हे कहा भयो जे चरन पखारे, जौं लौं तत्व न चीन्हे ।। 1 ।। कहा भयो जे मूंड मुंडायो, कहा तीर्थ व्रत कीन्हे । स्वामी दास भगत अरु सेवक, परम तत्व नहिं चीन्हे ।। 2 ।। कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै । तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलिक वै चुनि खावै ।। 3 ।। - - बड़ाई – बड़प्पन, अभिमान । नाचे अरु गाये - कीर्तन आदि करने से । चरन पखारे—चरण धोने से, अथवा मूर्ति पूजन करने से । जौं लौं– जब तक । न चीन्हे-नहीं पहिचाना । आपा- अहंकार । पिपिलिक वै- च्यूंटी हो कर, अर्थात् छोटा बन कर, अपने अहं को बिल्कुल समाप्त कर । धूल में मिली चीनी को च्यूंटी ही अलग करके खा सकती है, यह काम हाथी नहीं कर सकता। इसी प्रकार भक्ति का आनंद लेने के लिए सर्वप्रथम अपने अहं को दबाना पड़ता है, छोटा होना पड़ता है। अब मेरी बूड़ी रे भाई, ताते चढ़ी लोक बड़ाई | टेक ॥ अति अहंकार उर मा सत रज तम, तामें रह्यो उरझाई । कर्मन बझि पर्यो, कछु नहिं सूझ, स्वामी नांव भुलाई । ॥ 1 ॥ हम मानौ गुनी, जोग सुनि जुगता, महामुरख रे भाई । हम मानो सूर सकल बिधि त्यागी, ममता नहीं मिटाई ॥ 2 ॥ हम मानो अखिल, सुन्न मन सोध्यो, सब चेतन सुधि पाई । ज्ञान ध्यान सब ही हम जान्यो, बूझौं कौन सों जाई || 3 || हम जानौ प्रेम प्रेमरस जानै, नौबिधि भगति कराई । संत रविदास वाणी / 125