पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१२३

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स्वांग देखि सब ही जन लटक्यो फिरियों आन बंधाई ।। 4 ।। यह तो स्वांग साच ना जानो, लोगन यह भरमाई । स्वच्छ रूप से ली जब पहरी, बोली तब सुधि आई ॥ 5 ॥ ऐसी भगति हमारी संतो, प्रभुता इहै बड़ाई । आपन अनत और नहिं मानत, ताते मूल गंवाई ॥6॥ मन रैदास उदास ताहि ते, अब कुछ मो पै कर्यो न जाई । आपा खोए भगति होत है, तब रहै अंतर उरझाई ॥ 7 ॥ - उर–हृदय । सुन्न–शून्य - समाधि | बूझौं– पूछूं। नौ विधि - नौ प्रकार की भक्ति । लटक्यो— भ्रम में पड़े हुए, विमोहित । आपन - अपने में । अनत- -दूसरे - में। और नहीं मानत - भेद नहीं मानते। आपा- अहंकार । - संतो अनिन भगति यह नाहीं । जब लग सिरजन मन पांचों गुन, व्याप्त है या माहीं ॥ टेक ॥ सोई आन अंतर करि हरि सो, अपमारग को आनै । काम क्रोध मद लोभ मोह की, पल-पल पूजा ठानै ।। 1 ।। सत्य सनेह इष्ट अंग लावै, अस्थल अस्थल खेलै । जो कुछ मिलै आन आखत सौं, सुत दारा सिर मेलै ।। 2 ।। हरिजन हरिहि और न जानै, तजै आन तन त्यागी । कह रैदास सोई जन निर्मल, निसि दिन जो अनुरागी ।। 3 ।। आनन – अनन्य । सिरजत - रचना, निर्माण | पाचों गुण - रूप, रस, गन्ध, - स्पर्श और शब्द | अंतर करि - अलग हो कर । अपमारग- कुमार्ग । इष्ट अंग- प्रेमी के शरीर में | खेलै - आनन्द लेता है । अस्थल अस्थल - स्थान-स्थान में । - आन – अन्न । आखत - अक्षत, चावल । आन (तन ) – अन्य । 126 / दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास