पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१२५

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माला नाय सकल जग डहको, झूठो भेख बनैहो । झूठे ते सांचे तब होइहौ, हरि की सरन जब ऐहौ ।। 1 ।। कनरस बतरस और सबै रस, झुंठिहिं मूड डोलेहौ । जब लगि तेल दिया में बाती, देखत ही बुझि जैहौ ।। 2 ।। जो जन राम नाम रंग राते और रंग न सुहैहो । कह रैदास सुनो रे कृपानिधि, प्रान गये पछितैहो ।। 3 ।। गैहो- - शरण नहीं पकड़ते। पैहो - प्राप्त करोगे । डहको - धोखा दिया । - कनरस – सुनने का रस । बतरस - बातें करने का रस । डोले हौं – सिर हिला कर - प्रसन्नत प्रकट करते हो । और रंग न सुह्रै हो– उन्हें किसी दूसरी वस्तु में आनन्द नहीं आता। हरि बिन नहिं कोई पतित पावन, आनहिं ध्यावे रे । हम अपूज्य भये हरि ते, नाम अनुपम गावै रे | टेक ॥ अष्टादस व्याकरन बखानैं, तीनि काल षट जीता रे । प्रेम भगति अंतर गति नाहीं, ता ते धानुक नीका रे ॥ 1 ॥ ता ते भलो स्वान को सत्रू, हरि चरनन चित लावै रे । मूआ मुक्त बैकुंठ बास, जिवत यहां जस पावै रे ॥ 2 ॥ हम अपराधी नीच घर जनमे, कुटुंब लोग करै हांसी रे । कह रैदास राम जपु रसना, कटै जनम की फांसी रे ॥3॥ आनहि-दूसरे को । अनुपम - अनुपम, अनूठा । अष्टादस- 18 पुराण | तीनि काल- भूत, वर्तमान और भविष्यत् । षट - षड्दर्शन - सांख्य, योग, न्याय, - वैशेषिक, पूर्व मीमांसा और उतर मीमांसा अथवा वेदान्त । ताते - उस से । धानुक- धुनिया - एक नीच जाति । नीका- अच्छा । स्वान को सत्रू - श्वपच, चाण्डाल। - 128 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास 1: