पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

धन्य हरिभक्ति त्रैलोकयश पावनी । करौ सतसंग इहि विमल यश गावनी ॥ टेक ॥ वेद तें पुराण पुराण तें भागवत, भागवत तें भक्ति प्रकट कीन्हीं। भक्ति ते प्रेम प्रेम ते लक्षणा, बिन सत्संग नहिं जाति चीन्ही ॥1॥ गंगा पाप हरैं शशि ताप अरु कल्पतरू दीनता दूरि खोबैं। पाप अरु ताप सब तुच्छ मति दूर करि, अमी की दृष्टि जब संत जोवैं ॥ 2 ॥ विष्णु भक्त जिते चित्त पर धर तिते, मन बच करम करि विश्वासा संत धरणी धरी कीर्ति जग बिस्तरी प्रणत जन चरण रैदास दासा ॥ 3 ॥ लक्षणा–यहां अद्वैत भाव से अभिप्राय है जिसमें साध्य और साधक में भेद नहीं रहता। नहिं जाति चीन्ही- पाहेचानी नहीं जाती, प्राप्त नहीं की जाती । - कल्पतरु – सभी इच्छाओं को पूर्ण करने में समर्थ एक कल्पित वृक्ष । अमी- अमृत । जिते – जितने । तिते - उन सब को | संत धरणी धरी - यह पृथ्वी संतों पर आश्रित है। - जउ तुम गिरिवर तउ हम मोरा । जउ तुम चन्द तउ हम भए हैं चकोरा ॥ 1 ॥ माधवे तुम न तोरहु तउ हम नहीं तोरहि । तुम सिउ तोरि कवन सिउ जोरहि ॥ 1 ॥ रहाउ । जउ तुम दीवरा तउ हम बाती । जउ तुम साची प्रीति हम तुम सिउ जोरी। तुम । सिउ जोरि अवर संगि तोरी ॥ ३ ॥ तीरथ तउ हम जाती ॥ 2 ॥ जह जह जाउ तहा तेरी सेवा । 130 / दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास

-