पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तुम सो ठाकरु अउरु न देवा ॥ 4 ॥ तुमरे भजन कटहि जम फांसा | भगति हेति गावै रविदासा ॥ 5 ॥ जउ — जो, यदि । सिउ — से । दीवरा – दीपक । जाती - यात्री । अवर- - - दूसरा । ठाकुरु – उपास्य । तोही मोही मोही तोही अंतरु कैसा । कनक कटिक जल तरंग जैसा ॥ 1 ॥ जउपै हम न पाप करंता अहे अनन्ता । पतित पावन नामु कैसे हुंता ॥ 1 ॥ रहाउ ॥ तुम्ह जु नाइक आछहु अंतरजामी । प्रभ ते जनु जानीजै जन ते सुआमी ॥ 2 ॥ सरीरू आराधै कउ बीचारू देहू । रविदास समदल समझावै कोऊ ॥ 3 ॥ अंतरू – भेद | कनक- सोना । कटिक – कंकण | ज उपै – यदि । अनन्ता - जिस का अन्त न हो । हुंता - होता । नाइक - स्वामी । आछहु - हो । - अंतरजामी - दिल की बात जानने वाला । जानो जै – जाना जाता है। मो कउ - मुझ को । समदल – समानता रखने वाला । - अब कैसे छूटे नाम रट लागी ॥ टेक ॥ प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी । जाकी अंग अंग बास समानी ॥ 1 ॥ प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा । जैसे चितवन चंद चकोरा ॥ 2 ॥ संत रविदास वाणी / 131