पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१३२

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तनु मनु देइ न अंतरु राखै । अवरा देखि न सुनै अभाखै ॥ 1 ॥ सो कत जानै पीर पराई । जा कै अंतरि दरदु न पाई ॥ 1 ॥ रहाउ ॥ दुखी दुहांगनि दुइ पख हीनी । जिनि नाह निरंतरि भगति न कीनी ॥ पुरसलात का पंथ दुहेला । संगि न साथी गवन इकेला ॥ 2 ॥ दुखिआ दरदुवंदु दरि आइआ। बहुत पिआस जवावु न पाइआ ॥ कहि रविदास सरनि प्रभ तेरी । जिउ जानहु तिउ करू गति मेरी ॥ 3 ॥ - सह—मिलन । सार—रहस्य, तत्व । सुख रलीआ – एकाकार होने का आनन्द । अंतरु—भेद । अवरा—दूसरा । कत– कैसे | दुहागन - अभागिन, विधवा । दुइ पख होनी—दोनों पक्षों से हीन । नाह - नाथ । पुरसलात - परमात्मा में रति । दुहेला–कठिन । गवन– गमन, चलना | दरि - द्वार । सरनि- शरण, आश्रय। - - जब हम होते तब तू नाही अब तू ही मैं नाही। अनल अगम जैसे लहर मइओदधि जल केवल जल मांही ॥ 1 ॥ माधवे किआ कहीऐ भ्रमु ऐसा । जैसा मानीएं होई न तैसा ॥ 1 ॥ रहाउ ॥ नरपति एकु सिंघासनि सोइआ सुपे भइया भिखारी । अछत राज बिछुरत दुखु पाइया सो गति भई हमारी ॥ 2 ॥ संत रविदास वाणी / 135