पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१३४

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सुकछु विचार्यो तातें मेरी मन थिरु है गयो । हारे रंग लाग्यो तब बरन पलटि भयो ॥ टेक ॥ जिन यह पंथी पंथ चलावा । अगम गवन में गम दिखलावा ॥ 1 ॥ अबरन बरन कहै जनि कोई । घट-घट व्यापि रह्यो हरि सोई । जेइ पद सुन नर प्रेम पियासा । सो पद रमि रह्यो जन रैदासा ॥ 2 ॥ सुकछु – थोड़ा सा । हारे रंग- भगवत्प्रेम का रंग | पलटि भयो – उलट - गया, बदल गया। पंथी – पंथ चलाने वाला, पथिक, संत । गबन - गमन, प्राप्ति, - - प्रवेश | अगम गवन- अगम्य की प्राप्ति के लिए । गम- प्रवेश | अबरन- - – अवर्णनीय, अनिर्वचनीय। कोई जानि – कुछ लोग । राम रह्यो – रमते हैं, आनन्द लेते हैं । बरजि हो बरजिवो उतूले माया । जग खेया महाप्रबल सबही बस करिये, सुरनर मुनि भरमाया ॥ टेक ॥ बालक वृद्ध तरुन अरु सुन्दर, नाना भेष बनावै । जोगी जती तपी संन्यासी, पंडित रहन न पावै ॥ 1 ॥ बाजीगर के बाजी कारन, सब को कौतिग आवै । जो देखे सो भूलि रहै, वा का चेला मरम जो पावै ॥ 2 ॥ षड ब्रहमण्ड लोक सब जीते, येहि बिधि तेज जनावै । सब ही का चित्त चोर लिया है, वा के पाछे लागे धावै ॥ 3 ॥ इन बातन से पचि मरियत है, सब को कहै तुम्हारी । संत रविदास वाणी / 137