पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१३६

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1॥ राम भगत को जन न कहाऊं, सेवा करूं न दासा । जाग, जग्य, गुन कछू न जानूं, ताते रहूं उदासा ॥ टेक ॥ भगत हुआ तो चढ़ बड़ाई, जोग करूं जग मानै । गुन हुआ तो गुनी जन कहै, गुनी आप को आनै ।। 1 ना मैं ममता मोह न महिमा, ये सब जाहिं बिलाई । दोजख भिस्त दोउ सम कर जानौं, दुहूं ते तरक है भाई ॥ 2 ॥ मैं अरु ममता देखि सकल जग, मैं से मूल गंवाई | जब मन ममता एक एक मन, तबहि एक है भाई ॥ 3 ॥ कृस्न करीम राम हरि राघव, जब लग एक न पेखा । बेद कतेब कुरान पुरानन, सहज एक नहिं देखा ॥ 4 ॥ जोइ जोइ पूजिय सोइ-सोइ कांची, सहज भाव सत होई । कह रैदास मैं ताहि को पुजूं, जाके ठांव नांव नहिं होई ॥ 5 ॥ बड़ाई – महिमा । जोग – योग साधना | महिमा - बड़ाई । जाहिं बिलाई- लुप्त हो जाते हैं। दोजख - नरक । भिस्त - बहिश्त, स्वर्ग । तरक - त्याग। ममत्व की भावना। पेखा – देखा । नांव - नाम । - अखिल खिलै नहिं का कहि पंडित, कोइन कहै समुझाई । अबरन बरन रूप नहिं जाके कहं, लौ लाइ समाई ॥ टेक ॥ चंद सूर नहिं रात दिवस नहिं, धरनि अकास न भाई । करम अकरम नहिं सुभ असुभ नहिं, का कहि देहुं बड़ाई ॥ 1 ॥ सीत वायु ऊसन नहिं सरवत, काम कुटिल नहिं होई । जोग न भोग क्रिया नहिं जाके, कहौं नाम सत सोई ॥ 2 ॥ निरंजन निराकार निरलेपी, निरवीकार निसासी । काम कुटिलता ही कहि गावैं, हरहर आवै हांसी ॥ 3 ॥ गगन धूर धूप नहिं जाके, पवन पूर नहिं पानी । मैं - - संत रविदास वाणी / 139