पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१३८

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भेष लियो पै भेद न जान्यो । अमृत लेइ विषै सो मान्यो ॥ टेक ॥ काम क्रोध में जनम गंवायो । साधु संगति मिलि राम न गायो ॥ 1 ॥ तिलक दियो पै तपनि न जाई । माला पहिरे घनेरी लाई ॥ 2 ॥ कह रैदास मरम जो पाऊं । देव निरंजन सत कर ध्याऊं ॥ 3 ॥ भेष—साधु का वेष, पहिरावा | भेद - रहस्य | अमृत आत्मा । विषै- विषय, भोग विलास । तपनि – जलन, पीड़ा । घनेरी - और अधिक । लाई - (आग) लगाई । मरम – मर्म, रहस्य | सत कर करूं । - -सत्य का । ध्याऊं – ध्यान - भाई रे सहज बंदो लोई, विन सहज सिद्धि न होई । लौलीन मन जो जानिये, तब कीट भृंगी होई ॥ टेक ॥ आपा पर चीन्हें नहीं रे, और को उपदेस । कहां से तुम आयो रे भाई, जाहुगे किस देस ॥ 1 ॥ कहिये तो कहिये काहि कहिए, कहां कौन पतिआई । रैदास दास अजान है करि, रह्यो सहज समाई ॥ 2 ॥ बंदो लोई-वन्दना कर लो, चिन्तन कर लो । कीट भृंगी होई - कीट भृंग का चिन्तन करते-करते भृंग हो जाता है। आपा- अहंकार । अजाने है - न जानते हुए अनजाने में ही । संत रविदास वाणी / 141