पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१३९

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ऐसो कछु अनुभौ कहत न आवै । साहिब मिलै तो को बिलगावै ॥ टेक ॥ सब में हरि है, हरि में सब है, हरि अपनो जिन जाना। साखी नहीं और कोई दूसर, जाननहार सयाना ॥ 1 ॥ बाजीगर सो रांचि रहा, बाजी का मरम न जाना। बाजी झूठ सांच बाजीगर, जाना मन पतियाना ॥ 2 ॥ मन थिर होइ तो कोई न सूझै, जानै जाननहारा । रह रैदास बिमल विवेक सुख, सहज सरूप संभारा ॥ 3 ॥ अनुभौ – अनुभव। बिलगावै – पृथक होना चाहेगा। साखी –साक्षी। बाजीगर – खेल खेलने वाला । बाजी - खेल, संसार | मरम- मर्म, रहस्य। - पतियाना – आश्वस्त होना । थिर – स्थिर । सहज – स्वाभाविक, एक सा रहने — वाला। सरूप –स्वरूप । संभारा - सम्भालता हूं। बेगम पुरा सहर को नाउ । दुखु अंदोहु नहीं तिहि ठाउ । नां तसवीस खिराजु न मालु । खउफू न खता न तरसु जवालु ॥ 1 ॥ अब मोहि खूब वतन गह पाई । ऊहां खैरि सदा मेरे भाई ॥ 1 ॥ रहाउ ॥ काइमु दाइमु सदा पातिसाही । दोम न सेम एक सो आही। आबादानु सदा मसहूर ऊहां गनी बसहि मामूर ॥ 2 ॥ तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै ॥ 142 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास