पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१४०

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महरम महल न को अटकावै । कहि रविदास खलास चमारा । जो हम सहरी सु मीतु हमारा ॥ 3 ॥ बेगमपुरा — वह नगर जहां दुःख चिन्ता न हो । नाउ – नाम | अंदोहु - दुःख, रंज । ठाउ – स्थान । तसवीस - चिन्ता | खिराजु – कर, टैक्स । खउफु - - खौफ, डर। खता – दोष, अपराध | तरसु – दया । जवालु – पतन । खैरि - - मन मेरो सत्त सरूप विचारं । आदि अंत अनंत परम पद, संसा सकल निवारं ॥ टेक । जस हरि कहिये तस हरि नाहीं, है अस जस कछु तैसा । जानत जान जान रह्यो सब, मरम कहो निज कैसा ॥ 1 ॥ करत आन अनुभवत आन, रस मिलै न बेगर होई । बाहर भीतर प्रगट गुप्त, घट-घट प्रति और न कोई ॥ 2 ॥ आदिहु एक अंत पुनि सोई, मध्य उपाइ जू कैसे । अहै एक पै भ्रम से दूजो कनक अलंकृत जैसे ॥ 3 ॥ पै कह रैदास प्रकास परम पद, का जप तप विधि पूजा । एक अनेक-अनेक एक हरि, कहौं कौन बिधि दूजा ॥ 4 ॥ - कुशलता। काइमु दाइमु – सदा रहने वाली । दोम – दूसरा । सेम – तीसरा । - - मसहूर – प्रसिद्ध । गनी – धनी । आबादानु – आबादी । मामूर – समृद्ध । सैल निकट संबंधी । खलास – मुक्त । सैर । महरम – रहस्य को जानने वाला, - अटकावै - रुके । हम सहरी – एक ही साथ नगर में रहने वाला । सत्त सरूप - सत्य का स्वरूप । संसा – संशय । मरम - मर्म, रहस्य, भेद । - बेगर – पृथक। रस मिलै न वेगर होई - एक बार उस रस का अनुभव हो जाने पर वह फिर छूटता नहीं। अहै - है। पै - परन्तु अलंकृत – आभूषण। संत रविदास वाणी / 143