पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१४१

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माधो भरम कैसेहु न बिलाई । ताते द्वैत दरसै आई ॥ टेक ॥ कनक कुंडत सूत पटा जुदा, रजु भुअंग भ्रम जैसा । जल थरंग पाहन प्रतिमा ज्यों, ब्रह्म जीव द्वति ऐसा ॥ 1 ॥ बिमल एक रस उपजै न बिनसै, उदय अस्त दोउ नाहीं । बिगता बिगत घटै नहिं कबहूं, बसत बस सब माहीं ॥ 2 ॥ निस्चल निराकार अज अनुपम, निरभय गति गोविंदा । अगम अनोचर अच्छर अतरक, निरगुन अंत अनंदा ॥ 3 ॥ सदा अतीत ज्ञान घन वर्जित, निरबिकार अबिनासी । कह रैदास सहज सुन्न सत, जिवनमुक्त निधि कासी ॥ 4 ॥ न बिलाई - दूर नहीं होता । ताते – इस लिए । द्वैत- ब्रह्म और जीवन दोनों - के पृथक होने का भाव। कनक – सोना । पट – वस्त्र | रजु - रस्सी । भुअंग सांप। पाहन – पत्थर। प्रतिमा – मूर्ति । उपजै - उत्पन्न होता । विनसै – नष्ट - - - । - - होता । बिगताबिगत – विगत एवं अविगत । विगत – विनाशी । अविगत अविनाशी। बसत – वस्तु | निस्चल - निश्चल, स्थिर | अज – जन्मरहित । अगम – अगम्य, पहुंच से बाहर | अगोचर - इन्द्रियातीत । अच्छर - -अक्षर, अविनाशी । अतरक – जो तर्क का विषय न हो, अतर्क्य | ज्ञान धन वर्जित - जो जाना न जा सके, अज्ञेय । सुन्न – शून्य जिवनमुक्त निधि – जीवनमुक्त सिद्ध योगियों के लिए बहुमूल्य धन, ओट एवं आश्रय स्थान । - - अविगति नाम निरंजन देवा । मैं क्या जानूं तुम्हरी सेवा ॥ टेक ॥ बांधू न बंधन छाऊं न छाया । • तुमहीं सेऊं निरंजन राया ॥ 1 ॥ 144 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास -