पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चरन पताल सीस असमाना । सो ठाकुर कैसे संपुट समाना ॥ 2 ॥ सिव सनकादिक अंत न पाये । ब्रह्मा खोजत जनम गंवाये ॥ 3 तोडूं न पाती पुजूं न देवा। सहज समाधि करूं हरि सेवा ॥ 4 ॥ नख प्रसाद जाके सुरसरि धारा । रोमावली अठारह भारा ॥ 5 ॥ चारों वेद जाके सुमिरत सांसा | भगति हेत गावै रैदासा ॥ 6 ॥ अविगति—अविनाशी। निरंजन – माया से निर्लिप्त | संपुट – डिब्बा | - सुरसरि – गंगा । नख प्रसाध - धारा - गंगा की धारा जिसके चरणों का प्रसाद है। रोमावली अठारह भारा - अठारह प्रकार की असंख्य वनस्पतियां जिन की रोमावली हैं। चारों वेद सांसा – चारों वेद जिन (परम तत्व) के श्वास मात्र से निकलते हैं । तेरा जन काहे को बोलै । बोलि बोलि अपनी भगति को खोलै ॥ टेक । बोलत बोलत बढ़े बियाधी बोल अबोलै जाई । बोलै बोल, अबोल कोप करै, बोल-बोल को खाई ॥ 1 ॥ बोलै ज्ञान मान परि बोलै, बोलै बेद बड़ाई । उर में धरि धरि जब ही बोलै, तब ही मूल गंवाई ॥ 2 ॥ बोलि बोलि औरहि समझावै, तब लगि समझ न भाई । संत रविदास वाणी/ 145