पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१४५

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त्यों तुम कारन केसवे, लालच जिव लागा । निकट नाथ प्राप्त नहीं, मन मोर अभागा ॥ टेक ॥ सागर सलिल सरोदिका, जल थल अधिकाई । स्वांति बुंद की आस है पिउ प्यास न जाई ॥ 1 ॥ जौं रे सनेही चाहिए, चित्त बहु दूरी । पंगुल फल न पहुंच ही, कछु साध न पूरी ॥ 2 ॥ कह रैदास अकथ कथा, उपनिषद सुनीजै । जस तूं तस तूं तस तुहीं, कस उपमा दीजै ॥ 3 ॥ केसबे—हे परमात्मा । लालच – ( प्रभु को) प्राप्त करने की उत्कट इच्छा। - जिव - मन में । अभागा - भाग्यहीन | पंगुल - पंगु, लंगड़ा। साध - इच्छा । जस - — जैसा । तस – तैसा । कस – किस से । उपमा - तुलना, सादृश्य । - 148 / दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास

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