पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१४६

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साखी 'रविदास' हमारो राम जी, दसरथ करि सुत नांहि । राम हमउ मंहि रमि रह्यो, बिसब कुटंबह मांहि ॥ 1 ॥ सब घट मंहि रमि रह्यो 'रविदास' हमारो राम । सोइ बूझइ राम कूं, जो होइ राम गुलाम ॥ 2 ॥ घट-घट बिआपक राम है, रामहिं बूझ कोय । 'रविदास' बूझै सोइ राम कूं, जउ राम सनेही होय ॥ 3 ॥ मुकुर मांह परछांइ ज्यों, पुहुप मधे ज्यों बास | तैसउ ही श्री हरि बसै, हिरदै मधे 'रविदास' ॥ 4 ॥ - हमउ मंहि - हमारे भीतर । बिसब कुटंबह – विश्वरूपी कुटुम्ब । घट- शरीर, हृदय । बुझइ – जान सकता है, समझ सकता है । कूं – को । मुकुर- शीशा । मांह – में। पुहुप – पुष्प | मधे – मध्य में । - 'रविदास' पीव इक सकल घट, बाहर भीतर सोइ । सब दिसि देखउं पीव पीव, दूसर नांहि कोई ॥5॥ एकै ब्रह्म हइ सकल मंहि, अरु सकल ब्रह्मह मांहि । 'रविदास' ब्रह्म सभ भेष मंहि, ब्रह्म बिना कछु नांहि ॥ 6 ॥ संत रविदास वाणी / 149