पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जो नर सत्य न भाषहिं, अरु करहिं बिसासघात । तिन्हहुं सो कबहुं भुलिहिं, 'रविदास' न कीजहि बात ॥ 15 ॥ जउ नाहीं था सरिस्टि मांहि, सोउ होइ हि नांह । 'रविदास' इस्ट सर्वत्त है, सोइ रहइ सरिस्टिहिं मांह ॥ 16 ॥ मिरत समान – मरे हुए के समान । भाषहिं – बोलते हैं। विसातघात- विश्वासघात । भुलिहिं— भूल कर भी । सरिस्टि- सृष्टि । नांह – नहीं । - अंतर्मुखी भइ जउ करहिं, सत्तनाम करि जाप । 'रविदास' तिन्ह सौं भजहुहिं जगतह तीन्हहु ताप ॥ 17 ॥ इड़ा पिंगला सुसुम्णा, बिध चक्र प्रणयाम | 'रविदास' हौं सबहि छांड़ियों, जबहि पाइहु सत्तनाम ॥ 18 ॥ 'रविदास' अराधहु देवकूं, इकमन हुइ धरि ध्यान । अजपा जाप जपत रहहु, सत्तनाम सत्तनाम ॥ 19 ॥ हरि सा हीरा छांडि कै, करैं आन की आस । ते नर जमपुर जांहिगे, सत्त भाषै 'रविदास' ॥20॥ - अंतर्मुखी - बाहर के विषयों से हट कर भीतर झांकने वाला । तिन्ह सौं- उन से। भजहुहिं—दूर भाग जाते हैं। तीन्हहु ताप - तीन प्रकार के कष्ट, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा आध्यात्मिक कष्ट । इड़ा, पिंगला, सुसुम्णा- ये प्रमुख नाड़ियों के नाम हैं। प्रणयाम- प्राणायाम, प्राणसाधना । विध चक्र - योग संहिताओं में वर्णित देह के भीतर के मूलाधार आदि छः चक्र | अजपा जाप –' –'सोडऽम्' (मैं वही हूं) मन्त्र का जाप । इक बूंद सौं बुझि गई, जनम जनम की प्यास । जनम मरन बंधन टूटई, भये 'रविदास' खलास ॥ 21 ॥ संत रविदास वाणी / 151