पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१५०

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'रविदास' आस इक राम की, अरु न करहु कोउ आस । राम छांडि अनत रमि हंइ, रहंइ सदा निरास ॥ 30 ॥ माथै तिलक हाथ जप माला, जग ठगने कूं स्वांग बनाया । मारग छांडि कुमारग डहकै, सांची प्रीत बिनु राम न पाया ॥ 31 ॥ प्रेम पंथ की पालकी, 'रविदास' बैठियो आय । सांचे सामी मिलन कूं, आनंद कह्यो न जाये ॥ 32 ॥ अलख – अदृश्य, जो देखा न जा सके। अलह - अल्लाह । छांड़ि- छोड़ कर । अनत रमिहंइ – दूसरे की उपासना करते हैं । डहकै – भटकता है । सामी- स्वामी । 'रविदास' मोरे मन लागियो, राम प्रेम को तीर । राम रसायन जउ मिलहिं, तउ हरै हमारो पीर ॥ 33 ॥ ओंकार को ध्यान मंहि, जौ लौं सुरति न होय । तौ लौं सांचे ब्रह्म कूं, 'रविदास' न बूझइ कोय ॥ 34 ॥ 'रविदास' सुरत कूं साधि कर, मोहन सों कर पिआर । भौ-जल कर संकट कटहिं, छुटहिं बिघन बिकार ॥ 35 ॥ 'रविदास' जन्मे कउ हरस का, मरने कउ का सोक। बाजीगर के खेल कूं, समझत नांही लोक ॥ 36 ॥ • - राम रसायन - राम नाम रूपी अचूक औषधी । सुरति – ध्यान | कुं – को । न बृझइ- नहीं पहिचानते । सुरत - सुरति ध्यान मोहन-सब को मोहित करने वाला, आकर्षक । भौ-जल - भवसागर, जन्म-मरण का चक्कर । कर – का। हर्ष। का- क्या । सोक- शोक । बाजीगर- खेल करने वाला । हरस - संत रविदास वाणी / 153