पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१५१

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'रविदास' सोई साधु भलो, जउ जग मंहि लिपत न होय । गोबिंद - सों रांचा रहइ, अरु जानहि नहिं कोय ॥ 37 ॥ 'रविदास' सोइ साधु भलो, जउ मन अभिमान न लाय । औगुन छांडहि गुन गहइ, सिमरइ गोबिंद राय ॥ 38 ॥ 'रविदास' सोइ साधु भलो, जउ रहइ सदा निरबैर । सुखदाई समता गहइ, सभनह मांगहि खैर ॥ 39 ॥ 'रविदास' सोइ साधु भलो, जिह मन निर्मल होय । राम भजहि विषया तजहि, मिथ भाषी न होय ॥ 40 ॥ - जउ – जो । मंहि — में लिपत - लिप्त | रांचा रहइ - मग्न रहता है, लीन रहता है। गहइ – ग्रहण करता है। निरबैर- निर्बेर, वैर रहित | समता गहइ- समभाव को ग्रहण करता है । खैर - कल्याण, कुशलता । मिथ भाषी - मिथ्या अथवा झूठ बोलने वाला। 'रविदास' सोई साधु भलो, जउ जानहि पर पीर । पर पीरा कहुं पेखि के, रहवे सदहि अधीर ॥ 41 ॥ 'रविदास' सोइ साधु भलो, जो पर उपकार कमाय । जाइसोइ कहहि बइसोइ करहि, आपा नांहि जताय ॥ 42 ॥ 'रविदास' सोइ साधु भलो, जिह मन नांहि अभिमान । हरस सोक जानइ नहिं, सुख दुख एक समान ॥ 43 ॥ 'रविदास' कहै जाके रिदै, रहै रैन दिन राम । सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्यापै काम ॥ 44 ॥ पर पीर-दूसरे का दुःख । पेखि कै – देख कर | सदहि- सदैव । अधीर- बेचैन । उपकार कमाय – भला करे । आपा- अपने आप को । रिदै - हृदय में । रैन - रात्रि । — - 154 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास