पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१५२

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जिहवां सों ओंकार जप, हत्थन सों कर कार । राम मिलहिं घर आई कर, कहि 'रविदास' बिचार ॥ 45 ॥ नेक कमाई जउ करहि, ग्रह तजि बन नंहि जाय । 'रविदास' हमारो राम राय, ग्रह मंहि मिलिंहि आय | 46 ॥ करम बंधन मंह रमि रह्यो, फल कौ तज्यो न आस । करम मनुष्य कौ धरम है, सत भाषै 'रविदास' ॥ 47 ॥ सौ बरस लौं जगत मंहि, जीवत रहि करु काम । 'रविदास' करम ही धरम है, करम करहु निहकाम ॥ 48 ॥ हत्थन – हाथों से । कार – कर्म । ग्रह तजि - घर - बार छोड़ कर । रमि - रह्यो – रम रहा है, फंसा हुआ है। मंह – में। मंहि — में निहकाम- निष्काम, फल की इच्छा से रहित हो कर । परकिरती परभाउ बस, मानुष करता है कार । मानुष तउ है निमित रूप, कहि 'रविदास' बिचार ॥ 49 ॥ करमन ही परभाउ तजि, निहकरमी होइ कर काम । 'रविदास' निहकरमी करम ही, मेल कराये राम ॥ 50 ॥ सुख दुख हानि लाभ कउ, जउ समझहि इक समान । 'रविदास' तिन्हहिं जानिए, जोगी पुरुष सुजान ॥ 51 ॥ जिह्वा वा भजै हरि नाम नित, हत्थ करहिं नित काम । 'रविदास' भए निहचिंत हम, मम चित करेंगे राम ॥ 52 ॥ - परकिरती - प्रकृति । कार – कर्म । परभाउ - प्रभाव । निमित- निमित्त, साधन। करमन- कर्मों के । तजि - छोड़ कर । निहकरमी होइ–निष्काम हो कर, फल की इच्छा त्याग कर । जोगी-योगी, कर्मयोगी । निहचिंत–निश्चिंत, चिन्ता रहित । मम - मेरी चित्त - चिन्ता । संत रविदास वाणी / 155