पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१५३

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'रविदास' स्रम करि खाइहि, जौ लौं पार बसाय | नेक कमाई जउ करइ, कबहुं न निहफल जाय ॥ 53 ॥ स्त्रम कउ ईसर जानि कै, जउ पूजहि दिन रैन । 'रविदास' तिन्हहि संसार मंह, सदा मिलहि सुख चैन ॥ 54 ॥ प्रभ भगति स्त्रम साधना, जग मंह जिन्हहिं पास । तिन्हहिं जीवन सफल भयो, सत्त भाषै 'रविदास' ॥55 ॥ धरम करम हुइ एक हैं, समुझि लेहु मन मांहि । धरम बिना जौ करम है, 'रविदास' न सुख तिस मांहि ॥ 56 ॥ - - स्त्रम करि – श्रम करके, मेहनत करे । जौ लौं – जब तक । पर बसाय - बस चले, सामर्थ्य हो । निहफल – निष्फल, व्यर्थ | स्त्रम कउ – श्रम को, मेहनत को । ईसर – ईश्वर, परमात्मा । जानि कै- जानकर, समझ कर । भाषै- कहता जात-पांत के फेर मंहि, उरझि रहइ सभ लोग मानुषता कूं खातहइ, 'रविदास' जात कर रोग ॥ 57 ॥ जन्म जात कूं छांडि करि, करनी जात परधान । इह्यौ बेद को धरम है, करै 'रविदास' बखान ॥ 58 ॥ नीच नीच कह मारहिं जानत नांहि नदान । सभ का सिरजनहार है, 'रविदास' एकै भगवान ॥ 59 ॥ 'रविदास' जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच । नर कूं नीच करि डारि है, ओछे करम कौ कीच ॥ 60 ॥ - उरझि रहइ – उलझ रहे हैं, फंसे हुए हैं। मानुषता – मनुष्यता, मानवता । कूं – को । खातहइ - खाये जा रहा है। जात कर - जाति-पांति का जन्म जात- जन्म के अनुसार जाति का विचार । छांडि करि- छोड़ कर । करनी जात-कर्म - 156 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास