पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१५५

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दीन दुखी के हेत जउ, बारै अपने प्रान । 'रविदास' उह न सूर कौं, सांचा छत्री जान ॥ 67 ॥ 'रविदास' वैस सोइ जानिये, जउ सत्त कार कमाय । पुंन कमाई सदा लहै, लोरै सर्वत्त सुखाय ॥ 68 ॥ जउ - - - जो । जानहि – जानता है। ब्रह्म आत्मा-पर ब्रह्म, परमात्मा । तजि - छोड़ कर । धरम कर — धर्म का । कार– काम हेत - हित में, के लिए। बारै- कुर्बान करदे । उह—वही । सूर – शूरवीर | छत्री – क्षत्रिय | बैस - वैश्य । सत्त- । - सच्चा, ईमानदारी का । कार– काम, व्यापार | पुंन - कमाई – नेक कमाई । लहै- - - - लेता है, करता है । लौरे - चाहता है, कामना करता है। सर्वत्त - सब का । सांची हाटी बैठि कर, सौदा सांचा देइ । तकड़ी तोलै सांच की, 'रविदास' वैस है सोइ 6 ॥ ॥ 'रविदास' जउ अति पवित्र है, सोई सूदर जान । जउ कुकरमी असुध जन, तिन्ह ही न सूदर मान ॥ 70 ॥ हरिजनन करि सेवा लागै, मन अहंकार न राखै । 'रविदास' सूद सोइ धंन है, जउ असत्त बचन न भाखै ॥ 71 ॥ 'रविदास' हमारो राम जोई, सोई है रहमान । काबा कासी जानीयहि, दोउ एक समान ॥ 72 ॥ सांची हाटी-सच्ची दुकान | वैस – वैश्य । सूदर - शूद्र | कुकरमी - दुष्कम करने वाला। असुध - अशुद्ध, अपवित्र । करि- की । सूद – शूद्र | धंन - धन्य । असत्त- असत्य, झूठ । भाखै - बोलता है । जानीयहि - जानिए । - जब सभ करि दोउ हाथ पग, दोउ नैन दोउ कान । 'रविदास' पृथक कैसे भये, हिन्दू मुसलमान ॥ 73 ॥ 'रविदास' कंगन अरु कनक मंहि, जिमि अंतर कछु नांहि ॥ तैसउ अंतर नहीं, हिंदुअन तुरकन मांहि ॥॥74॥ 158 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास