पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/२०

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संत रविदास : युगीन परिवेश साहित्यकार अपने परिवेश से ही साहित्य के लिए विषय वस्तु ग्रहण करता है। जिन रचनाओं में समसामयिक सामाजिक शक्तियों के मुख्य अन्तर्विरोध व संघर्ष परिलक्षित होते हैं, वही रचनाएं महान होती हैं। किसी रचना को समझने के लिए उसके समय को समझना बहुत आवश्यक है, जिसमें उसकी उत्पत्ति होती है, जहां से उसका रचियता रचना के लिए सामग्री जुटाता है। संत रविदास जिस काल खंड में रचना कर रहे थे, वह साहित्य के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण समय था । समाज में व्यापक स्तर पर परिवर्तन हो रहे थे, और साहित्यकार अपने समय के अन्तर्विरोधों को समझने तथा उनको व्यक्त करने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे। यह एक आंदोलन की तरह था । जब यह आंदोलन था तो इसके कुछ संकल्प व उद्देश्य तो अवश्य ही होंगे, जो इनकी रचनाओं में कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्ष तौर पर नजर आते हैं। भारतीय चिन्तन परम्परा में भक्ति आंदोलन के बारे में के. दामोदरन ने लिखा कि “भक्ति आंदोलन ने देश के भिन्न-भिन्न भागों में, भिन्न-भिन्न मात्राओं में तीव्रता और वेग ग्रहण किया। यह आंदोलन विभिन्न रूपों में प्रकट हुआ । किन्तु कुछ मूलभूत सिद्धांत ऐसे थे जो समग्र रूप में पूरे आंदोलन पर लागू होते थे - पहले, धार्मिक विचारों के बावजूद जनता की एकता को स्वीकार करना; दूसरे, ईश्वर के सामने सबकी समानता; तीसरे, जाति प्रथा का विरोध; चौथे, यह विश्वास कि मनुष्य और ईश्वर के बीचे तादात्मय प्रत्येक मनुष्य के सद्गुणों पर निर्भर करता है, न कि उसकी ऊंची जाति अथवा धन सम्पत्ति पर; पांचवें, इस विचार पर जोर कि भक्ति ही आराधना का उच्चतम स्वरूप है; और अन्त में, कर्मकाण्डों, मूर्ति पूजा, तीर्थाटनों और अपने को दी जाने वाली यंत्रणाओं की निन्दा | भक्ति आंदोलन मनुष्य की सत्ता को सर्वश्रेष्ठ मानता था और सभी वर्गगत एवं जातिगत भेदभावों तथा धर्म के नाम पर किये जाने संत रविदास : युगीन परिवेश / 23