पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/२६

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पूरी करने वाली दृष्टि से लिखित इतिहास पर प्रश्नचिन्ह लगाए बिना, इतिहास के प्रति साम्प्रदायिक दृष्टि को मान लिया और उसी का नतीजा है यह मान लेना कि भक्तिकाल का उद्भव मुसलमान शासकों के अत्याचार से बचाव में हुआ। भक्तिकाव्य के प्रति साम्प्रदायिक रुख अख्तियार करने के कारण ही इसकी मत-मतान्तरिक, ब्रह्म, जीव, जगत, व माया के दार्शनिक - तात्त्विक पक्ष, भक्ति के तात्त्विक पक्ष, साधना के विविध पक्षों की व्याख्याएं की और मूल्यांकन में एकांगी रुख अपनाए जाने के कारण इस साहित्य के सामाजिक आधार की अनदेखी हुई । इस साहित्य में तत्कालीन समाज की आशाओं-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति हुई है, लेकिन समग्र दृष्टि से उस पर विचार किया जाना आवश्यक है। "हिन्दी साहित्य में मध्यकालीन संतों ने वाणी, शब्द, साखी और पद तथा पदावलियों का विश्लेषण आध्यात्मिक और धार्मिक दृष्टि से किया गया है। किंतु इनके द्वारा समाज के जीवन, सामाजिक मूल्य, उनकी आशाओं-दुराशाओं को प्राय: अनदेखा कर दिया गया हैं कुछ संतों ने समाज में परिव्याप्त आपसी कलह, विद्वेष और भेदभाव की भावना से दूर ऐसे देश, राज्य और समाज की कल्पना की है जो प्रेम और न्याय पर आधारित हो। यह देश एक प्रकार का यूटोपिया या काल्पनिक था, किंतु आशाओं-दुराशाओं के परिचायक भी थे। 7 - " भक्ति आंदोलन के ऐतिहासिक कारणों पर विचार करने की जरूरत है। मुसलमानों के यहां आने से समाज में हुए सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों ने समाज को प्रभावित किया उसके सकारात्मक पक्षों का ही परिणाम है - भक्ति- आंदोलन का काव्य। "तुर्क शासन • बाद भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आरम्भ हुए। सिंचाई में रहट का व्यापक रूप से प्रयोग आरम्भ हुआ जिससे नदियों के किनारे विशेष रूप से पंजाब और दोआब के क्षेत्र में कपास और अन्य फसलों की पैदावार में बहुत वृद्धि हुई । सूत कातने के लिए तकली के स्थान पर चरखे का व्यापक प्रयोग होने लगा। इसी तरह रुई धुनने में तांत का प्रयोग जन साधारण के लिए महत्त्वपूर्ण बन गया था। कपास ओटने में चरखी का भी प्रयोग शुरू हुआ । तेरहवीं सदी के करघा के प्रयोग से बुनकरों और वस्त्र उद्योग की स्थिति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ । कपड़े की रंगाई और छपाई की भी इस बीच व्यापक उन्नति हुई । मध्य एशिया के सीधे सम्पर्क के कारण भारत के व्यापार का भी बहुत प्रसार हुआ । इन नई परिस्थितियों ने व्यापारियों और कारीगरों का सीधा संबंध और गहरा करने में सहयोग दिया। वे व्यापारी कला और संस्कृति के आदान-प्रदान में भी महत्त्वपूर्ण संवाहक सिद्ध हुए।" संत रविदास : युगीन परिवेश / 29