पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

'रविदास' हमारो सांइयां, राघव राम रहीम । सभ ही राम को रूप हैं, केसो क्रिस्न करीम ॥

अलख अलह खालिक खुदा, क्रिस्न-करीम करतार । रामह नांउ अनेक हैं, कहै 'रविदास' बिचार ॥ संत रविदास ने न केवल राम और रहीम की एकता के बारे में बार-बार जिक्र किया, बल्कि हिन्दू और मुसलमानों के सबसे पवित्र माने जाने वाले स्थलों के बारे में, जिनमें इन धर्मों के मानने वालों की सर्वाधिक आस्था है, उनमें भी कोई अन्तर नहीं किया। रविदास का मानना था कि काबा और कासी में कोई अन्तर नहीं है। 'रविदास' हमारे राम जोई, सोई है रहमान | काबा कासी जानीयहि, दोउ एक समान ॥ सामाजिक विकास के ऐतिहासिक पड़ाव पर जब से समाज वर्गों में विभाजित हुआ है, तभी से समाज के विभिन्न वर्गों के हित परस्पर टकराते रहे हैं। अपने वर्ग - हितों की रक्षा के लिए और अपने शत्रु या विरोधी वर्ग के हितों के विरुद्ध समाज में समीकरण बनते रहे हैं। जिस वर्ग का समाज की संपत्ति पर अधिकार रहा है वह अपना अधिकार बनाए रखने के लिए समाज के अन्य वर्गों को एकजुट नहीं होने देता। समाज में जितना विभाजन रहेगा उतना ही वर्चस्वी वर्ग के हित सुरक्षित रहेंगे, इसलिए वर्चस्वी वर्ग समाज के विभिन्न समुदायों को परस्पर लड़ाने के लिए कुछ न कुछ आधार निर्मित करते हैं। समाज में एक साथ ही कई स्तरों पर टकराहटें चलती रहती हैं, जिनमें अधिकांश इस तरह की होती हैं कि उनके साथ ही समाज चलता रह सकता है। लेकिन कुछ टकराहट ऐसी भी होती हैं कि उनके चलते एक समय के बाद समाज आगे नहीं बढ़ सकता । इसलिए समाज के विकास के लिए इनको दूर करना अनिवार्य हो जाता है । यह टकराहट बाधा बन जाती है। शासक वर्गों की चालाकी इसमें होती है कि वे उन टकराहटों को मुख्य टकराहट के रूप में पहचानते हैं जो वास्तव में मुख्य नहीं होती । मध्यकाल में कई तरह की पहचानें समाज में थीं । एक पहचान धर्म के आधार पर भी थी । विभिन्न धर्मों के लोग एक साथ रहते थे । यद्यपि विभिन्न धर्मों में कोई मूलभूत अन्तर नहीं था, लेकिन विभिन्न धर्मों के आभिजात्य वर्ग के मानने वालों के स्वार्थों में टकराहट थी। शासक वर्ग के लोगों ने इस टकराहट को धर्मों की टकराहट के तौर पर पेश करने की कोशिश की। रविदास जैसे संतों ने उनकी 36 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास