पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/३५

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हिंदू तुरुक मंहि नहीं कुछ भेदा, सभ मंह एक रत्त अरु मासा । दोऊ एकहू दूजा कोऊ नांहि, पेख्यो सोध 'रविदासा ॥

हिंदू तुरुक मंह नहीं कुछ भेदा, दुइ आयहू एक द्वार । प्राण पिंड लोहु मांस एकहू, कहि रविदास बिचार ॥ रविदास के लिए धर्म वर्चस्व स्थापित करने का साधन नहीं, बल्कि एक नैतिक सत्ता है, जिसे अपनाकर ही सच्चा धार्मिक हुआ जा सकता है, न कि धार्मिक पाखण्ड को अपना कर । सच्चे अर्थों में धार्मिक व्यक्ति ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता मानता है और ईश्वर के समक्ष सभी धर्मों के मानने वाले बराबर हैं । साम्प्रदायिकता की विचारधारा इस मूल बात के विपरीत है। साम्प्रदायिकता की शुरुआत ही भेदभाव से होती है। एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के लोगों से श्रेष्ठ मानना साम्प्रदायिक विचारधारा का लक्षण है। साम्प्रदायिकता की विचारधारा विभिन्न धर्मों के लोगों को ही श्रेष्ठ व निम्न की श्रेणियों में विभाजित नहीं करती, बल्कि ईश्वर में तथा पूजा स्थलों में भी श्रेष्ठता - निम्नता की श्रेणियां बना देती है । संतों ने इन श्रेणियों को नहीं माना और इन विचारों की वैधता को समाप्त करने के लिए अपनी ऊर्जा लगाई। संत कबीर के बारे में प्रसिद्ध है कि वे स्थानों के बारे में भेदभाव व ऊंच-नीच की मान्यता को तोड़ने के लिए जिस काशी में पूरी उम्र रहकर पण्डों के साथ जूझते रहे जीवन के अंतिम समय में उसे छोड़कर मगहर में चले आए। मगहर के बारे में विश्वास था कि यहां पर मरने वाला व्यक्ति नरक में जाता है और काशी में मरने वाले को स्वर्ग मिलता है। पण्डों के इस विचार पर प्रहार करने के लिए ही वे यहां आए थे। क्या काशी क्या उसर मगहर, राम हृदय बस मोरा । जो काशी तन तजै कबीरा, रामै कौन निहोरा ॥ काशी हो या उजाड़ मगहर, मेरे लिए दोनों बराबर हैं, क्योंकि मेरे हृदय में राम बसे हुए हैं। अगर कबीर की आत्मा काशी में तन को तजकर मुक्ति प्राप्त कर ले तो इसमें राम का कौन सा अहसान है । संत रविदास ने साम्प्रदायिक दृष्टि अपनाकर मनुष्यों में भेदभाव को स्वीकृति नहीं दी, बल्कि मानवतावादी दृष्टि को अपनाकर मनुष्यों में धार्मिक व सामाजिक एकता व बराबरी को मान्यता दी । कहा जा सकता है कि दलित-चिन्तकों व साहित्यकारों की परम्परा ने साम्प्रदायिक विचारों को शुरू से ही नकारा । दलित-मुक्ति का आदर्श रहा है । 38 / दलित मुक्ति की विरासत: संत रविदास