पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/३६

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समाज में बराबरी की चाह पैदा करना तथा इसे हासिल करने के लिए प्रेरित करना । संत रविदास ने अपने अनुयायियों के लिए स्पष्ट रास्ता बताया है कि साम्प्रदायिकता की विचारधारा को मान्यता देने का अर्थ है। समाज में सामाजिक भेदभाव, शोषण व अन्याय को वैधता देना। वर्तमान दलित आंदोलन व चिन्तन संत रविदास से इस संबंध में प्रेरणा ले सकता है। संत रविदास के समकालीन संतों ने तथा उनकी परम्परा के कवियों ने साम्प्रदायिक सद्भाव को अपनी वाणी का विषय बनाया है। ये कवि सभी धर्मों की शिक्षाओं का आदर करते थे तथा उनको अपने जीवन में उतारने पर बल देते थे। सभी धर्मों के दार्शनिक सिद्धांतों पर विचार-विमर्श करते थे तथा सभी धर्मों के बाहरी आडम्बरों का विरोध करते थे। धर्म की शिक्षाओं को व्यवहार में लाने वाला, सिद्धान्तों पर तर्क-वितर्क करने वाला तथा कर्मकाण्डों की आलोचना करने वाला व्यक्ति साम्प्रदायिक नहीं हो सकता। साम्प्रदायिकता न तो विचार-विमर्श व तर्क को बढ़ावा देती है और न ही धर्म की शिक्षाओं को आचरण में उतारने पर जोर देती है। साम्प्रदायिकता तो मात्र आडम्बरों-कर्मकाण्डों व धार्मिक चिन्हों पर जोर देती है। इस तरह साम्प्रदायिकता मध्यकालीन समस्त संतों की विचारधारा के विरुद्ध है। मध्यकालीन संतों को विभिन्न धर्मों में कोई मूलभूत अन्तर नजर नहीं आया। लोगों के जीवन में भी कोई अन्तर नहीं था, चाहे वे किसी भी धर्म से ताल्लुक क्यों न रखते हों। शासक वर्गों का जीवन एक सा था, चाहे वे अलग-अलग धर्मों से ताल्लुक क्यों न रखते हों। संतों का किसी एक धर्म से विरोध नहीं था, बल्कि वे सभी धर्मों में व्याप्त बुराइयों का विरोध करते थे । शायद इसी का परिणाम है कि हिन्दू-पण्डे और मुस्लिम मुल्ला दोनों इकट्ठे होकर कबीर के खिलाफ तत्कालीन शासक सिकन्दर लोदी के पास शिकायत लेकर गए थे। संस्थागत धर्म के पोषक धार्मिक तत्ववादी हमेशा ही समाज की प्रगतिशील शक्तियों के खिलाफ रहे हैं। साम्प्रदायिक विचारधारा भी धर्म के प्रगतिशील रूप को नष्ट करके रूढ़िवादी व साम्प्रदायिक रूप को स्वीकारती है। संस्थागत धर्म ही धर्म-स्थलों को बढ़ावा देता है, उनके भव्य निर्माण पर जोर देता है और धर्म के नाम पर तमाम बुराइयों के संरक्षण की शुरुआत भी यहीं से होती है। संत रविदास व अन्य संतों ने अपनी धार्मिक-आध्यात्मिक जिज्ञासा व जरूरतों को पूरा करने के लिए किसी धर्म-स्थल के निर्माण पर जोर नहीं दिया। सच्चा धार्मिक व्यक्ति कभी धार्मिक स्थलों के लिए दूसरे धर्म के लोगों से नहीं लड़ता और न ही दूसरे धर्म के पूजा-स्थलों को गिराने या नुक्सान पहुंचाने के काम को धार्मिक कार्य मानता है। मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर संत रविदास धर्म और साम्प्रदायिकता / 39