पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/३७

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व गुरुद्वारों के लिए लड़ने वाले लोग रविदास व अन्य संतों की दृष्टि में धार्मिक नहीं हैं। संत रविदास ने लिखा है कि ईश्वर भक्त को अपने इष्ट की आराधना करने या ढूंढने के लिए किसी पूजा स्थल में जाने की जरूरत नहीं है । तुरुक मसीति अल्लह ढूंढइ, देहरे हिंदू राम गुंसाई । 'रविदास' ढूंढिया राम रहीम कूं, जंइ मसीत देहरा नांहि ॥

देहरा अरु मसीत मंहि, 'रविदास' न सीस नवांय । जिह लौं सीस निवावना, सो ठाकुर सभ थांय ॥

रविदास न पुजहूं देहरा, अरु न मसजिद जाय । जंह जंह ईस का वास है, तंह - तंह सीस नवाय ॥

हिंदू पूजह देहरा, मुसलमान मसीति । 'रविदास' पूजह उस राम कूं, जिह निरन्तर प्रीति । संत रविदास की परम्परा के कवि हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रति कटिबद्ध थे। संतों ने साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए लेखनी चलाई। कबीर, नानक, पलटूदास, मलूकदास, दादूदयाल आदि सभी संतों ने साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल कायम की है। संत सामान्य जनता के जीवन व आकांक्षाओं को अपनी रचनाओं में व्यक्त कर रहे थे और आम जनता में परस्पर विश्वास पैदा करने के लिए अपनी कलम चला रहे थे। कबीर ने लिखा भाई रे दुई जगदीश कहां ते आया, कहुकौन भरमाया अल्लाह, राम, करीम, केशव, हरि हजरत नाम धराया । गहना एक कनक में गढना, इनि मंह भाव न दूजा । कहन सुनन को दुर करि पापिन, इक निमाज इक पूजा | यही महादेव वही महंमद, ब्रह्मा-आदम कहिये । को हिन्दू को तुरुक कहावै, एक जिमीं पर रहिये । बेद कितेब पढ़े वे कुतुबा, वे मौलाना वे पांडे । बेगरि बेगरि नाम धराये, एक मटिया के भांडे ॥ कबीर ने हिन्दू और मुसलमान में कोई अन्तर नहीं माना । हिन्दुओं के राम और मुसलमानों के खुदा में कोई भेद नहीं है। गुरु ने यही उपदेश दिया है। 40 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास