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संत रविदास : जाति और वर्ण

जात-जात में जात है, ज्यों केलन में पात भारतीय समाज जातियों में विभाजित रहा है। समाज के प्रभावशाली लोगों ने अपने हितों की पूर्ति के लिए इस तरह का विभाजन किया । जाति का प्रभाव समाज के विभिन्न वर्गों पर एक जैसा नहीं है। जाति-व्यवस्था की श्रेष्ठता की मान्यता के कारण किसी को तो सभी अधिकार बिना किसी योग्यता के ही मिल जाते हैं और कोई-कोई समस्त गुण सम्पन्न होते हुए भी वैधानिक, मानवीय और यहां तक कि प्राकृतिक अधिकारों से भी वंचित हो जाता है । इसलिए जाति का अर्थ समाज में सबके लिए एक जैसा न होकर अलग-अलग हो जाता है किसी के लिए जाति एक प्रथा है, जिसका हर कीमत पर पालन करना है। किसी के लिए एक दंभ बन जाता है, कोई इसे एक भ्रम ही समझता है, एक मानसिकता है, एक मिथक है, एक अंधविश्वास है, एक रूढ़ि है, किसी के लिए यह एक चेतना है, जिसे वह धारण किए हुए हैं और किसी के लिए अभिशाप, गुलामी और शोषण का माध्यम है। जाति- 1- व्यवस्था को लेकर भारतीय समाज में समय-समय पर विभिन्न वर्गों की प्रतिक्रियाएं होती रही हैं । जाति कोई स्थिर वस्तु या स्थिति नहीं रही, बल्कि यह समय व स्थिति के अनुसार बदलती रही है। सामाजिक-आर्थिक हैसियत बदलते ही जाति की सामाजिक स्थिति भी बदलती रही है । जाति भारतीय धर्म व नीति के विमर्श के केन्द्र में रही है। वर्णों की उत्पत्ति और वर्ण-धर्म के पालन का आग्रह स्मृतियों के केन्द्र में रही है। वर्णों की उत्पत्ति और वर्ण-धर्म के पालन का आग्रह स्मृतियों और अन्य ग्रंथों में भरा पड़ा है। राजा को जाति व्यवस्था के पालन के निर्देश दिए गए हैं और राजाओं ने भी जाति आधारित व्यवस्था को ही अपनाने में समझदारी दिखाई। वे समाज के प्रभावशाली लोगों को नाराज करके अपना शासन कायम नहीं रख सकते थे। इसलिए मुस्लिम - 44 / दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास