पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शासकों ने भी जाति प्रथा को तोड़ना तो क्या बल्कि इसे मजबूती ही प्रदान की और अंग्रेज, जो तमाम आधुनिक प्रगति का दावा करते रहे, उन्होंने भी प्रथा को न केवल यथावत कायम रखा, बल्कि अधिक मजबूत किया 'यह सच है कि अंग्रेजी राज्य में जाति प्रथा अधिक कठोर हुई । यह तो इसी बात से देखा जा सकता है कि व्यक्ति के नाम के साथ उसकी जाति के नाम जोड़ने का सिलसिला जितने बड़े पैमाने पर 19वीं सदी और फिर 20वीं सदी में देखा गया उतने बड़े पैमाने पर ऐसा सिलसिला भारत में कभी था ही नहीं। वर्ण का महत्त्व अधिक था । वर्ण के अंतर्गत छोटी-छोटी जातियों का महत्त्व नहीं था। तीन-चार जातिवाचक शब्द शर्मा, भट्ट, मिश्र आदि संस्कृति ग्रंथों में पण्डितों के नाम के साथ मिलते हैं। लेकिन आधुनिक काल में व्यक्ति के पचासों नये जाति सूचक शब्द जोड़े जाने । तो अंग्रेजी राज्य की परिस्थितियों में यह सब हुआ। ऐसा अकारण नहीं हुआ। अंग्रेज इस बात को प्रोत्साहन देते थे कि लोग अपनी जाति का नाम बराबर लिखें। सरकारी नौकरी के लिए आवेदन-पत्र देना हो तो उसमें जाति का उल्लेख करना जरूरी होती था । शिक्षा संस्था में भर्ती होना हो तो वहां भी जाति का नाम लिखना आवश्यक था । अंग्रेजों ने एक काम और किया। कुछ बिरादरियों को उन्होंने अधिक शूरवीर मान लिया, इनको फौज में विशेष रूप में नौकरी मिलनी चाहिए। कुछ जातियां शूरवीर हो गयीं, कुछ अन्य जातियां विद्या के लिए विशेष योग्य मानी गयी। शेष जातियां केवल सेवा करने को योग्य रह गई। इस तरह अंग्रेजी राज में जाति -प्रथा को नया जीवन मिला।' देखने की बात है कि शासकों ने जहां जाति -प्रथा को स्थापित करने में रुचि ली, वहीं समाज सुधारकों ने इसके विरुद्ध संघर्ष किया। महात्मा बुद्ध, महावीर जैन के आंदोलनों के बाद सिद्धों-नाथों से होती हुई कबीर, नानक, रविदास आदि संतों की वाणी व संघर्ष में इसके विरुद्ध आंदोलन मुख्य रहा है। इन संतों ने इस बात को पहचान लिया था कि जाति के रहते हुए समाज में मानवता स्थापित नहीं हो सकती। मानवता और जाति में मूल रूप से ही विरोध है । जाति की कब्र पर ही मानवता की नींव रखी जा सकती है 1 'ब्राह्मणवाद और बुद्ध के महासंग्राम के समय से ही जाति का सवाल भारतीय सभ्यता और समाज के इतिहास का बड़ा अनसुलझा सवाल रहा है और अदम्य सवाल भी। हजारों सालों के संघर्षों के बावजूद इस सवाल का हल न होना ब्राह्मणवादी व्यवस्था की और उससे जुड़ी शक्ति और संपत्ति की व्यवस्थाओं की मजबूती का प्रमाण है। लेकिन अगर यह सवाल हजारों साल तक अदम्य रहा और बराबर बाहरी सामाजिक संकटों को जन्म देता रहा तो इससे यह बात भी साबित संत रविदास जाति और वर्ण / 45