पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/४३

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होता है कि प्रभुत्त्व की व्यवस्था की वहशी ताकत अपनी जगह, उस व्यवस्था की व्यापक जन-स्वीकृति में बराबर दरारें भी पड़ती रहती है। उत्पीड़ित वर्ग बराबर खड़े होकर उत्पीड़ित होते रहने से इंकार करता है और हमारे समाज के बेहतरीन और सबसे ज्यादा प्रगतिशील तत्त्वों ने इस सवाल को जिन्दा रखा है। मेरा अपना विचार यह है कि जाति-विरोधी सामाजिक समतावादी विचारधारा से लैस भक्ति- सूफी परंपरा ने, जो भारत के लगभग हर क्षेत्र और भाषा में व्याप्त रही है, प्रभुत्वशाली समाज के विश्वासों और उसके द्वारा गढ़े गए औचित्य के सामने संकट पैदा करने और उसे गहराने में भारी योगदान दिया है। 2 संत रविदास ने पहचान लिया था कि समाज में जाति के विष की अनेक परते हैं। समाज में जाति के अन्दर जातियां मौजूद हैं। जैसे केले के पत्तों में पत्ते होते हैं, उसी तरह से जातियां समाज में हैं। जाति-व्यवस्था का महल इस तरह से खड़ा है जैसे कि केले के पत्ते बुने हुए हैं। जाति-व्यवस्था का ढांचा हर स्तर पर मौजूद है। यह समाज में विभिन्न स्तर पर बना देता है और लोगों में स्थायी विभाजन पैदा करता है। रविदास ने इस बात को भी पहचान लिया था कि जाति-व्यवस्था के रहते मनुष्य-मनुष्य में भाईचारा कायम नहीं हो सकता । वे एक-दूसरे के निकट नहीं आ सकते । जब तक समाज से जाति का नाश नहीं हो जाता, तब तक मानवों में एकता कायम नहीं हो सकती । मानव जाति की एकता और मनुष्यता के मूल्यों के प्रसार व स्थापना में जाति सबसे बड़ी बाधा है। इसीलिए रविदास ने लिखा कि : जात पांत के फेर मंहि, उरझि रह्इ सभ लोग। मानुषता कूं खातइह, जात कर रोग ॥

जात जात में जात है, ज्यों केलन में पात । 'रविदास' न मानुष जुड़ सकैं, जौं लौं जात न जात ॥ जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव करने को संत रविदास ने मनुष्यता का अपमान समझा। उनका मानना था कि सभी मनुष्यों को एक ही भगवान ने बनाया है, सबके बनाने वाला एक ही ईश्वर है, वह सब में समान रूप से मौजूद है। उसी से सबका विस्तार हुआ है, इसलिए जो वर्ण-अवर्ण, ऊंच-नीच पर विचार करते हैं, वे मूर्ख हैं। वर्ण या जाति के आधार पर भेद करने वालों को अज्ञानी व मूर्ख बताना असल में ब्राह्मणावादी विचारधारा को सिरे से नकारना है । “ईश्वर के सम्मुख सभी प्राणियों की समानता का सिद्धांत उस नई सामाजिक चेतना का द्योतक था, जो सामन्ती शोषण के विरुद्ध जूझने वाले किसानों और कारीगरों में फैल रही थी। व्यक्ति के गुणों और योग्यताओं पर जोर । जो ऊंची 46 / दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास