पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/४४

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जाति अथवा किसी विशिष्ट वंश में जन्म लेने के फलस्वरूप प्राप्त सुविधाओं के विपरीत था । 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता' की अभिव्यक्ति था । ' '3 एकै माटी के सभ भांडे, सभ का एकौ सिरजन हारा । 'रविदास' ब्यापै एकौ घट भीतर, सभकौ एकै घड़ै कुम्हारा ॥

'रविदास' उपिजइ सभ इक बुंद ते, का ब्राह्मण का सूद । मूरिख जन न जानइ, सभ मंह राम मजूद॥

'रविदास' इकही बूंद सों, सभ ही भयो बित्थार । मूरिख हैं जो करत हैं, बरन अबरन विचार ||

सभ महिं एकु रामहु जोति, सभनंह एकउ सिरजनहारा । 'रविदास' राम रामहिं सभन मंहि, ब्राह्मण हुई क चमारा ॥ नीच नीच कह मारहिं जानत नाहिं नदान । सभ का सिरजहार है, 'रविदास' एकै भगवान ॥ संत रविदास जिस समय में हुए उस समय धर्म-संबंधी चिंतन ही मानव- जीवन व चिंतन के केन्द्र में था। उस समय सोचने के ढंग में ईश्वर की उपस्थिति लगभग अनिवार्य सी थी । उसे दूर करके सोचा ही नहीं जाता था । विज्ञान की खोजों ने अभी यह सिद्ध नहीं किया था कि जीवन विकसित हुआ है, इसके विपरीत यही माना जाता था कि इस संसार को ईश्वर ने बनाया है। संसार में मौजूद तमाम चीजों का निर्माता ईश्वर ही है। इसलिए ईश्वर के समक्ष ही मानव मानव में भेद न मानने के तर्क को ही सर्वाधिक मान्यता प्राप्त थी । संत रविदास भी बार-बार इस बात को अपने दोहों में कहते हैं कि कथित उच्च जाति व कथित नीच जाति के लोगों को भगवान ने ही बनाया है और जब ईश्वर ने ही सबको बनाया है तो उनमें ऊंच-नीच कैसे हो सकती है। असल में ऊंच-नीच की सामाजिक निर्मिति को संत कवि ईश्वर निर्मित के हवाले से समाप्त करना चाहते हैं । यद्यपि प्रारम्भ में जाति व वर्ण के निर्माताओं ने ईश्वर के हवाले से ही वर्गों के ऊंच-नीच को वैधता देने की कोशिश की थी, लेकिन जल्दी उन्होंने इसको गुण के आधार पर स्थापित करने की बात कही थी और इसके पेशागत आधार को भी तर्क के तौर पर प्रस्तुत किया था । यद्यपि जन्म से वर्ण को मानना तो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है, लेकिन गुणों के आधार पर भी इसे स्वीकार इसलिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसमें भी एक संत रविदास : जाति और वर्ण / 47