पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/४५

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सांसारिक काम और दूसरे सांसारिक काम में भेदभाव किया जाता है और इस आधार पर मनुष्य मनुष्य में भेदभाव किया जाता है। "यद्यपि संत रविदास के प्रयासों से समाज में ऊंच-नीच और जात-पांत के विचारों में कोई विरोध परिवर्तन नहीं हुआ। उन्होंने नीच जाति के लोगों को सामाजिक बंधनों से ऊपर उठने का एक मार्ग दिखाया और यह भी बताया कि नीच जात के लोगों को आत्म सम्मान का जीवन बिताना चाहिए। वह कहते हैं कि : जाकि छोति जगत कऊ लागै ता पर तुहीं ढरै । नीचहु ऊंच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै । 114 जिसकी जाति जगत कहता है कि नीची है, वह बात तू भी मान लेता है, किंतु ऊंच-नीच करने वाला तो भगवान है, तू किसी से क्यों डरता है । " संत रविदास की यह बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण है और वर्तमान दलित-मुक्ति आंदोलन व चिन्तकों का विशेष ध्यान आकर्षित करती है। ब्राह्मणवादी विचारधारा ने अपनी जगह समाज में इस तरह बनाई है कि जिन वर्गों व समुदायों के वह खिलाफ है, वे भी उसको आदरणीय मानकर अपने व्यवहार का हिस्सा बनाए हुए हैं व उसकी नैतिकता और मूल्य-चेतना ही मुख्यतौर पर उनको पारिचालित करती है। दलित- मुक्ति आंदोलन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर यही बात रही है कि ब्राह्मणावादी विचारधारा से दलितों को कैसे मुक्त किया जाए। जब तक दलित वर्ग इसे संजोये रहेंगे और इससे परिचालित होंगे तब तक समाज में ब्राह्मणवाद का प्रभुत्व बना रहेगा। संत रविदास ने जन्म के आधार पर जाति-प्रथा या वर्ण-व्यवस्था को मानने से स्पष्ट इनकार कर दिया। जन्म को इसका आधार न मानकर व्यक्ति के कर्म को इसका आधार माना। उन्होंने कहा कि जन्म के कारण न तो कोई ऊंचा होता है और न ही नीचा। मनुष्य को उसके काम ही ऊंचा या नीचा बनाते हैं। मनुष्य के जन्म को मुख्य न मानकर उसके कामों पर ही विचार करना चाहिए। बात बिल्कुल सही है कि जन्म पर किसी का अधिकार नहीं हैं लेकिन संसार में अच्छे या बुरे काम करना काफी कुछ व्यक्ति पर निर्भर करता है। 'रविदास' जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच । न कूं नीच करि डारि है, ओचे कम कौ कीच ॥

जन्म जात कूं छांडि करि, करनी जात परधान । इयौ बेद कौ धरम है, करै 'रविदास' बखान ॥ 48 / दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास