पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/४६

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संत रविदास ने समाज में प्रचलित मनुस्मृति की व्यवस्था को नकारा। मनुस्मृति में वर्ण को जन्म के आधार पर मान्यता दी गई थी लेकिन कर्म का सिद्धांत भी पुनर्जन्म के साथ मिलकर जाति - विभाजन को औचित्य प्रदान करता है। इसीलिए जाति- चेतना का पीढ़ी-दर-पीढ़ी का पुनर्जन्म हो रहा है। कभी यह आर्थिक ईकाई के तौर पर स्थापित रही, तो कभी सामाजिक ईकाई के तौर पर । वर्तमान में इसके ये आधार टूट रहे हैं तो यह राजनीतिक ईकाई के रूप में मजबूत हो रही है । “रविदास ने अपने सामाजिक चिंतन में समाज में ऊंच-नीच की भावना का खंडन किया और वर्णाश्रम व्यवस्था का जमकर विरोध किया। उनके विचार में ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र और क्षत्रिय, डोम, चमार और मलेच्छ (मुसलमान) भगवत भजन से ही एक ही कुल के हो जाते हैं। बहमन वैस सूद अरु खत्री | डोम चमार म्लेच्छ मन सोइ ॥ होइ पुनीत भगवंत भजन ते । आपु तारि तारै कुल दोई ॥ संत रविदास के युग के चिन्तन की सीमा उसका ईश्वरवाद था । वे समाज की संत समस्त समस्याओं को इसी दृष्टिकोण से देखते थे और इसी को उनका समाधान मानते थे। किसी भी सामाजिक समस्या को ईश्वर की देन मानना और उसका निदान भी ईश्वर के भरोसे छोड़े देना तत्कालीन चिन्तन की सबसे बड़ी कमजोरी कहा जा सकता है। जो समस्याओं के सामाजिक कारणों से ध्यान हटाता था। उस समय के सभी विचारकों-संतों में यह प्रवृत्ति मिलती है। संत रविदास भी इससे अछूते नहीं हैं। वेद पढ़ई पंडित बन्यो, गांठ पन्हीं तऊ चमार । 'रविदास' मानुष इक हइ, नाम धेरै हई चार ॥ ' मनुस्मृति में एक वर्ण को दूसरे से श्रेष्ठ माना गया । जैसे यह कहा गया कि ब्राह्मण की हर हाल में पूजा करनी चाहिए चाहे वह इसके योग्य हो चाहे न हो और शूद्र में चाहे जितने गुण हों उसको दुत्कार व प्रताड़ना का ही विधान किया है। रविदास ने इसे स्वीकार न करके गुणों के आधार पर सम्मान करने को कहा। यदि ब्राह्मण में कोई गुण नहीं है तो उसकी पूजा सिर्फ इसलिए नहीं करनी चाहिए कि वह ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ है और यदि चांडाल कहे जाने वाले व्यक्ति में गुण हैं तो उसका सम्मान करना चाहिए। आदर- मान या पूजा के अधिकारी होने का आधार जन्म न मानकर गुणों को मानना महत्त्वपूर्ण है। संत रविदास : जाति और वर्ण / 49