पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/४७

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'रविदास' ब्राह्मण मति पूजिए, जउ होवै गुनहीन । पूजहिं चरन चंडाल के, जउ होवै गुन परवीन ॥

ऊंचे कुल के कारण, ब्राह्मन कोय न होय । जउ जानहि ब्रह्म आत्मा, 'रविदास' कहि ब्राह्मन सोय ॥

काम क्रोध मत लोभ तजि, जउ करइ धरम कर कार । सोइ ब्राह्मण जानिहि, कहि 'रविदास' बिचार ॥ संत रविदास के समय में वर्ण के आधार पर समाज में व्यक्ति का सम्मान तय होता था और व्यक्ति अपने कथित वर्ण के कर्त्तव्यों पर खरा उतरता है या नहीं यह भी जरूरी नहीं था। रविदास के वर्ण के कर्त्तव्यों को पुनर्परिभाषित किया । उसे इस तरह से व्याख्यायित किया जिससे कि पीड़ित व्यक्ति का पक्ष ही मजबूत होता था । मनुस्मृति के वर्ण-संबंधी कार्यों में क्षत्रीय उसी को कहा गया जो राज्य की रक्षा करता है या जो शासन करता है। लेकिन रविदास ने उसी को सच्चा क्षत्रीय कहा जो दीन-दुखी के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर कर सकता है। केवल भुजाओं में ताकत होने मात्र से किसी को क्षत्रीय नहीं कहा जा सकता, बल्कि उस ताकत का प्रयोग दीन-दुखियों के लिए करने वाले को ही कहा जा सकता है। जो व्यक्ति समाज के पीड़ित के लिए अपने प्राण तक देने के लिए तैयार है वही इसका अधिकारी है। दीन दुखी के हेत जउ, बारै अपने प्रान । 'रविदास' उह नर सूर कौं, सांचा छत्री जान ॥ वैश्य के लिए मात्र व्यपार करना ही काफी नहीं है। व्यापार में तो धोखा, ठगी, बेइमानी, निजी स्वार्थ भी होता है। संत रविदास ने सबके सुख के लिए व्यापार करने वालों को ही वैश्य कहा । 'रविदास' वैस सोई जानिये, जउ सत्त कार कमाय । पुंन कमाई सदा लहै, लोरै सर्वत्त सुखाय ॥

सांची हाटी बैठि कर, सौदा सांचा देइ । तकड़ी तोलै सांच की, 'रविदास' वैस है सोइ ॥ मनु की वर्ण-व्यवस्था में शूद्र को सबसे नीचे का दर्ज दिया और उसे इस तरह परिभाषित किया मानो कि वह समाज पर बोझ व कलंक हो । रविदास ने शूद्र 50 / दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास