पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/४८

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को असत्य न कहने वाला धन कहकर प्रतिष्ठापित किया । 'रविदास' जउ अति पवित्र है, सोई सूदर जान । जउ कुकरमी असुध जन, तिन्ह ही न सूदर मान ॥

हरिजनन करि सेवा लागै, मन अहंकार न राखै । 'रविदास' सूद सोइ धंन है, जउ असत्त न भाखै ॥ रविदास के समय में वर्णों से ही सोचा जाता था, इसलिए इस शब्दावली को तो वे नहीं छोड़ पाए, लेकिन उन्होंने वर्ण की परिभाषा जरूर बदल दी । वर्ण को जन्म से न जोड़कर उन्होंने उसे आचरण से जोड़ा। एक बात खासतौर पर देखने की यह है कि सभी वर्गों को परिभाषित करते हुए कहा कि सच्चाई को धारण किया व्यक्ति ही क्षत्री, वैश्य और शूद्र है। इसका अर्थ यह हुआ कि सच्चाई ही रविदास के लिए महत्वपूर्ण है । वे व्यक्ति को इसी आधार पर देखते थे । वर्ण-व्यवस्था में सोपानिक क्रम है। संत रविदास ने वर्ण- - व्यवस्था को जन्म के आधार पर तथा इसमें व्याप्त ऊंच-नीच को तो स्वीकार नहीं किया, लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने वर्ण-व्यवस्था का खात्मे की ओर भी कोई संकेत नहीं किया। असल में कर्म के आधार पर वर्ण मानना व उनमें श्रेष्ठ निम्न श्रेणी की मान्यता में मूलभूत अन्तर्विरोध यही है कि यदि कोई जन्म के आधार पर उच्च दर्जा पा ले तो कर्म के आधार पर उसे निम्न कैसे किया जाए ? वर्ण-व्यवस्था के रहते समाज में भेदभाव व काम के छोटे-बड़े होने की मान्यता तो मिलती ही है। इसलिए समाज से भेदभाव व असमानता समाप्त करने के लिए वर्ण- -व्यवस्था को ही समाप्त करना जरूरी है। जाति को गलत और वर्ण-व्यवस्था को सही मानना भी उचित व तार्किक नहीं है। जाति की उत्पत्ति का वर्ण से गहरा रिश्ता है। यूं कहना भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा कि वर्ण-व्यवस्था की कोख से ही जाति का जन्म हुआ है। और असल में यह वर्ण-व्यवस्था का विस्तार ही है। असल में यह भी जाति प्रथा को टिकाये रखने का ही एक ढंग है । जाति-प्रथा और वर्ण-व्यवस्था को अलग- अलग भी मान लिया जाए तो दोनों में एक बात तो समान रूप से मौजूद है और वही बात सर्वाधिक आपत्तिजनक है कि यह वर्णों में भेदभाव है । एक वर्ण को दूसरे से श्रेष्ठ समझा जाता है। यहीं से पक्षपात, भेदभाव को मान्यता मिलती है अन्ततः जिसका विस्तार घृणा में होता है। संत रविदास की वाणी के सामाजिक प्रभाव को रेखांकित करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा कि "महात्मा रविदास को प्रेरणामयी वाणियों ने " संत रविदास जाति और वर्ण / 51