पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/५०

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संत रविदास : भक्ति बनाम मुक्ति 4 'भक्ति' शब्द के भाषा वैज्ञानिक अध्ययन से यह स्पष्ट हो चुका है कि भक्ति- भक्त और भगवत्-भगवन् शब्द 'भज्' धातु से बने हैं जिसका प्राथमिक प्रयोग बांटने, 'भाग' पाने या लेने अथवा 'भाग' यानी हिस्से का साझीदार बनने एवं ऐसे ही संबंधित अर्थों में वैदिक साहित्य में हुआ है। 'भग' रूपी धन अथवा द्रव्य के अधिपति को भगवत् कहा गया और जिसके लिए 'भग' एक भाग निर्दिष्ट हुआ वह 'भक्त'। उसका अपना विभाजन द्वारा नियत भाग उसकी 'भक्ति' कही गई। ऋग्वेद में 'भक्त', 'भक्ति' और 'भगवत्' शब्दों का प्रयोग इन्हीं अर्थों में हुआ है। यदि आगे चलकर भगवत् शब्द से एक अलौकिक सर्वशक्तिमान परम तत्त्व का बोध होने लगा तो उसके मूल में यही तथ्य है कि उस तत्त्व की कल्पना एक ऐसी शक्ति के रूप में की गई जिसका समस्त ऐश्वर्य एवं सम्पदा पर प्रभुत्व था और जो अपने उपासक को उसका एक अंश 'भक्ति' प्रदान कर उसे अपना भक्त बना सकती थी। इसी कारण 'भक्ति' और 'भक्त' के प्रारंभिक प्रयोग कर्मवाच्य में हुए हैं और ऋग्वेद की एक ऋचा में अग्नि को भक्तों और अभक्तों में भेद करने वाला कहा गया है। 'भगवत्' के अनुग्रह से 'भग' के एक अंश के प्रापक, अतिग्रहीता होने से 'भक्त' और 'भक्ति' शब्द दैवी शक्ति के साथ एक प्रकार की सहभागिता एवं घनिष्ट आत्मीयता की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए सर्वथा उपयुक्त थे और संभवतः इसी कारण धार्मिक विचारधारा में 'भक्ति' शब्द एक सशक्त प्रतीक सिद्ध हुआ। 'सामान्यज्ञान चेतना व आम बातचीत में भक्ति को ईश्वर की उपासना का ढंग, पद्धति, प्रणाली के रूप में ही समझाता है। डा. सेवा सिंह ने भक्ति को मात्र उपासना-पद्धति, प्रणाली या कर्मकाण्ड बताने वाला नहीं माना। भक्ति एक विचारधारा है और विचारधारा में कुछ मूल्य मान्यताएं, स्थापनाएं एवं निष्कर्ष होते हैं। संत रविदास

भक्ति बनाम मुक्ति / 53