पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विचारधारा हमेशा वर्गों की होती है, व्यक्तियों की नहीं।' व्यक्ति तो केवल उसको ग्रहण करते हैं, उसके वाहक बनते हैं, उसमें अपने अनुभव व तर्क सम्मिलित करते हैं, उसका औचित्य सिद्ध करते हैं। यह भी विवाद का विषय नहीं है कि वर्ग- विभाजित समाज में विचारधारा भी वर्गीय होती है। जब समाज में परस्पर विरोधी प्रकृति के वर्ग हैं तो किसी विचारधारा का एक वर्ग को लाभ होता है तो दूसरे वर्ग को नुक्सान । भक्ति की विचारधारा उच्च वर्ग की विचारधारा रही है एवं विशेष समय पर उच्च वर्ग ने इसका आविष्कार किया है इस आविष्कार के पीछे ऐतिहासिक कारण भी रहे और उच्च वर्ग की जरूरतें भी। तमाम मत-मतान्तरों, उपासना-विधियों (वैष्णव, शैव, तन्त्र, आलवार आदि) में भक्ति का केन्द्रीय तत्त्व 'दासता ' और ‘समर्पण’ अवश्य मौजूद है। ऊपरी तौर पर भाषा का प्रतीकों का, देव- कल्पनाओं का ही अन्तर है।' 172 प्रत्येक समाज ने समय परिवर्तन के साथ परम्परागत तौर पर प्रचलित मान्यताओं और धारणाओं को अपने समय के अनुकूल परिभाषित किया है। धर्म- दर्शन से लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं तक में परिवर्तन किया है। किसी जमाने में धर्म को ही सत्य कहा जाता था, लेकिन रविदास ने इसे पलटकर सत्य को धर्म के रूप में स्थापित किया। जिन्ह नर सत्त तियागिया, तिन्ह जीवन मिरत समान । ‘रविदास' सोई जीवन भला, जहं सभ सत्त परधान । ""

'रविदास' सत्त मति छांड़िए, जौ लौं घट में प्रान । दूसरो कोउ धरम नाहिँ, जग मंहि सत्त समान ॥

जो नर सत्य न भाषहिं, अरू करहिं बिसासघात । तिन्हहूं सो कबहुं भुलिहिं, 'रविदास' न कीजिए बात ॥ 'रविदास निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। भक्ति भावना में उन्होंने ब्रह्म की विशेषताओं का भी वर्णन किया है। ब्रह्म के लिए उन्होंने अनेक नामों का उल्लेख किया है जिन्हें हिन्दू, मुसलमान, नाथपंथी सभी प्रयोग करते रहे थे। इन नामों में प्रमुख हैं-राम, गोबिंद, प्रभु, कृष्ण, माधव, हरि, रघुनाथ, अल्लाह, खुदा, मालिक इत्यादि । इनमें राम का नाम सर्वाधिक प्रिय था। कबीर की ही तरह उनके राम 'दशरथ -सुत्त' नहीं थे, वह परम तत्त्व ब्रह्म के प्रतीक थे। । 54 / दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास