पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/५२

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राम कहत सब जगत भुलाना, सो यह राम न होई । करम अकरम करुणामय केशव, करता नांव सुकोई ॥ दार्शनिक रूप में संत रविदास ने ब्रह्म को बादशाह, सुल्तान या सुल्तानों का सुल्तान भी कहा है। उस काल के विचारक अल्लाह के लिए सुल्तानों के सुल्तान शब्द का प्रयोग करते थे और सुल्तान को जिल-अल्लाह अर्थात अल्लाह का साया या छाया कहते थे। रैदास का सुल्तान अर्थात भगवान बुद्धिमान है, वह जन्म-मरण में नहीं आता, उसका कोई निश्चित स्वरूप नहीं है, और वह निर्बल की रक्षा करता इस प्रकार रविदास ने इस्लामी और हिन्दू विचारों में सामंजस्य करने का प्रयास किया। रविदास ने वेद, उपनिषद, षड्दर्शन आदि का ज्ञान प्राप्त किया। किंतु वे उनको अपनी साधाना का आधार नहीं मानते थे । उनको पुस्तकीय ज्ञान और वेदों-शास्त्रों में कोई श्रद्धा नहीं थी, बल्कि स्वानुभूति को ही अपना संबल बनाया। संत रविदास ने कहा कि मानव-प्रेम ही ईश्वर की भक्ति है। जिस व्यक्ति के मन में मानव के प्रति प्रेम नहीं है वह चाहे जितनी मर्जी आराधना कर ले, चाहे जितनी तपस्या कर ले उसको ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। बन खोजइ पिय न मिलहिं, बन मंह प्रीतम नांह। 'रविदास' पिय है बसि रह्यो, मानव प्रेमंहि मांह ॥ रविदास ने मानव प्रेम को महत्व दिया और उसे ईश्वर की तपस्या के नाम पर किए जाने वाले कर्मकाण्ड से अधिक महत्वपूर्ण माना। "रविदास ने ब्राह्मण और पुरोहित वर्ग के आडम्बरपूर्ण कर्मकाण्ड की आलोचना की और कहा कि ये धर्म पुस्तकों का पठन दिखावे मात्र के लिए करते हैं। रविदास तीर्थ-स्थान, पूजा आदि को प्रभुनाम के बिना बेकार समझते हैं। वे उद्घाटित करते हैं: थोथा पंडित थोथी बानी । थोथी हरि बिन सभै कहानी ॥ थोथा मंदिर भोग विलासा । थोथा आन देव की आसा ॥ रविदास कहते हैं कि वह स्वयं तीर्थ स्थानों का भ्रमण नहीं करते थे, न ही व्रत आदि दिखावे के लिए करते थे। उन्होंने मनुष्य की कल्पना एक बंजारे से की है जो सब जगह भ्रमण करता है किंतु नश्वर जगत में उसका कोई निवास नहीं है। 4 रविदास ने कहा कि ईश्वर कहीं जंगल में गुम नहीं हुआ है कि उसे ढूंढना है, संत रविदास : भक्ति बनाम मुक्ति / 55