पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/६६

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गुरुओं को त्यागकर अपने संगी - साथियों को ही गुरु के तौर पर धारण किया । संतों ने अपने भक्ति के सिद्धातों में भक्त और ईश्वर के बीच बिचोलिए की भूमिका को अस्वीकार किया है, लेकिन गुरु को उन्होंने स्थापित किया । गुरु को ईश्वर के बराबर का दर्जा दिया । गुरु के बारे में अति महिमामंडित विचार प्रस्तुत किए। इसका कारण आध्यात्मिक कम और सामाजिक अधिक नजर आता है । इनके सामने समाज को परिवर्तित करने का महती मकसद था, जिसके लिए समाज में जड़ जमाए रुढ़िवादी विचारों पर विचार करना जरूरी था और यह भी उस समय के समाज में आवश्यक शर्त की तरह ही था कि प्रवचन करने या धार्मिक विचारों पर आधिकारिक बात के लिए किसी गुरु का आधिकारिक शिष्य हो और उसने किसी से दीक्षा ली हो । शायद इसी अधिकार को प्राप्त करने के लिए ही इन्होंने जीवन में गुरु के महत्त्व को स्थापित किया और गुरु का दर्जा ईश्वर से भी ऊंचा किया। गौर करने की बात है कि व्यक्ति के जीवन में गुरु की भूमिका सीमित ही है। वह पुरोहित की तरह उसके जीवन को नियंत्रित नहीं करता, बल्कि उसमें आत्मज्ञान जगाकर उसकी भूमिका समाप्त हो जाती है । संत रविदास ने साधु-संन्यासी को भी पुनर्परिभाषित किया। प्रचलन में साधु की ऐसी छवि थी कि वह गेरुआ वस्त्र धारण करके और तरह-तरह के स्वांग रचकर भोले भाले लोगों को ठगते थे । रविदास ने साधु के बाहरी दिखावे व आडम्बरों को छोड़कर उसके गुणों से पहचानने की बात की। साधु का काम सिर्फ ईश्वर का नाम जपना नहीं है बल्कि समाज में लगों की तकलीफों को दूर करना है। रविदास ने गुरु बनने के जन्मजात अधिकार को चुनौती दी और गुरु बनने के लिए कुछ योग्यताएं व शर्तें रखीं, जिनको पूरा करने पर ही गुरु होने का श्रेय मिल सकता है। उन्होंने गुरु के आचरण को आदर्श पुरुष के आचरण के रूप में रखा। जिस तरह से कबीर और रविदास का धर्म आचरण प्रधान था, न कि कर्मकांड- प्रधान उसी तरह से उनका गुरु भी अपने चारण की कसौटी पर परखा जाने की बात वे करते हैं, न कि सम्प्रदाय विशेष के ज्ञान में महारत हासिल करने की यो कि उच्च कुल में उत्पन होने को । रविदास के लिए साधु कोई पराभौतिक गुणों वाला प्राणी नहीं है, उसे भी मानवीय गुणों पर खरा उतरना होता है। रविदास के लिए वही सच्चा साधु है जो सबको समान नजर से देखता है, सबका भला चाहता है और किसी के प्रति वैर भाव नहीं रखता। वह संसार को सुख प्रदान करने वाली समानता को अपनाता है। सच्चा साधु वही है जो दूसरों की पीड़ा का अहसास करता है। जो विषय वासनाओं का त्याग कर देता है और झूठ नहीं बोलता। संत रविदास : साधु-संत बनाम गुरु पुरोहित / 69