पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/६७

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'रविदास' सोइ साधु भलो, जउ रहइ सदा निरबैर । सुखदाई समता गहइ, सभह मांगहि खैर ॥

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'रविदास' सोइ साधु भलो, जिह मन निर्मल होय । राम भजहि विषया तजहि, मिथ भाषी न होय ॥

'रविदास' सोइ साधु भलो, जउ जानहि पर पीर । पर पीरा कहुं पेखि के, रहवे सदहि अधीर ॥ संत रविदास ने साधु संत के गुणों में परम मानवीय गुणों का समावेश किया ने है। वे किसी महान व्यक्ति में इन गुणों को देखना चाहते थे। समानता उनके दर्शन व विचारों का केंद्र है । समानता चाहे वह सामाजिक हो, आर्थिक या किसी अन्य क्षेत्र में | ‘पर पीड़ा' दूर करने में तत्पर रहने वाले को साधु कहते हैं। समानता की स्थापना और पर पीड़ा दूर करने के गुण साधु-संन्यासी को समाज सुधारक के निकट ले आते हैं। संत रविदास सच्चा साधु उसे मानते हैं जिसमें अहंकार नहीं होता और पर उपकार को ही अपना काम मानता है। वह संसार की बुराइयों में लिप्त नहीं होता । 'रविदास' सोई साधु भलो, ज पर उपकार कमाय । जाइसइ कहहि बइसोइ करहि, आपा नांहि जताय ॥

'रविदास' सोइ साधु भलो, जिह मन नाहिं अभिमान । हरस सोक जानइ नहिं, सुख-दुख एक समान ॥

'रविदास' सोइ साधु भलो, जउ जग मंहि लिपत न होय । गोबिंद-सों रांचा रहइ, अरू जानहिं नहिं कोय ॥

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'रविदास' सोइ साधु भलो, जउ मन अभिमान न लाय । औगुन छांड़हि गुन गहड़, सिमरइ गोबिंद राय ॥ संत रविदास द्वारा बताई गई साधु संन्यासी की कसौटी आज भी प्रासंगिक है। भारतीय समाज में साधु-संन्यासी की बहुत बड़ी प्रतिष्ठा रही है। एक संस्था की तरह साधु समाज में काम करता रहा है। समय के साथ साधु नामक इस संस्था में 70 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास