पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/६८

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भी बदलाव आया है और इसके आदर्श व मूल्य इससे निकल गए हैं और मात्र ढांचा ही इसका बचा गया है। आज साधु-संन्यासी जिस तरह से ऐयाशी कर रहे हैं और अकूत दौलत अपने इर्द-गिर्द एकत्रित कर रहे हैं, उसने इस समाज में तरह- तरह की विकृतियों को जन्म दिया है। डेरे व मठ जिस तरह से अपराध, हिंसा, नशा व यौन शोषण के अड्डे बने रहे हैं। ऐसे में संत रविदास ने साधु-संन्यासी के गुणों की जो प्रतिष्ठा की है वह कथित साधु व साधु के वेश में छुपे व्यापारी या ठग में पहचान करवाने में महती भूमिका निभाते हैं। संत रविदास का जीवन बहुत ही संयमी व त्यागी का जीवन था, जो पराये धन पर और दूसरे की जेब पर नजर नहीं रखते थे, और स्वयं ही अपने गुजारे के लिए काम करते थे। वे दूसरों पर निर्भर नहीं थे। लेकिन आज के अधिकांश साधु- संन्यासियों का जीवन त्यागी का नहीं, बल्कि संग्रही का हो गया है और संयम के उपदेश केवल अपने भक्तों को देकर उनकी जेब से अपने ठाठ के लिए धन जुटाने का साधन बन रहे । संत रविदास व उनकी परम्परा के अन्य संतों के इस संबंध में विचारों व जीवन को आदर्श भी कहा जा सकता है। वे अपने समाज के लोगों के दुख-दर्द वे को दूर करने व उनमें मौजूद अज्ञानता को दूर करने के लिए हमेशा फिक्रमंद रहते थे, लेकिन अब तो साधुओं का व्यवहार एकदम विपरीत ही हो गया है। संदर्भ 1. सं. श्यामसुंदर दास; कबीर ग्रंथावली; पृ. - 21 संत रविदास : साधु-संत बनाम गुरु पुरोहित / 71