पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/७४

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इस तरह का समाज तो सही मायने में समाजवाद की ही कल्पना है। काफी बाद में जाकर इस विचार को मुकम्मल दर्शन का और इसे प्राप्त करने के तरीकों व शक्तियों का विचार कर पाए । संत रविदास ने समस्त समाज को सुखी रहने की स्वाभाविक वृत्ति को इसमें व्यक्त किया है, लेकिन समाज में स्वार्थी शक्तियां भेदभाव पैदा करके अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए इसे साकार नहीं होने देती । स्वराज्य व स्वतंत्रता के हिमायती रविदास ने मनुष्य को स्वराज्य ही रहने के लिए उचित जगह बताई है। रविदास राजनीतिक-सामाजिक गुलामी के खिलाफ थे। वे या तो स्वराज्य को रहने योग्य समझते थे या फिर मृत्यु | परतंत्रता से तो मरना ही अच्छा है: 'रविदास' मनषु करि बसन कूं, सुख कर हैं दुइ, ठांव। इक सुख है स्वराज मंहि, दूसर मरघट गांव ॥ स्वाधीनता मानव जाति का अनिवार्य गुण है। स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए मानव समाज हमेशा ही प्रयत्नशील रहा है। यद्यपि साम्राज्यवादी शक्तियां दूसरे समाजों और देशों-राष्ट्रों के संसाधनों का शोषण करने के लिए उन्हें गुलाम बनाती रही हैं, लेकिन गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए संघर्ष भी हमेशा ही होते रहे हैं। गुलामी सिर्फ राजनीतिक तौर पर किसी समाज की संप्रभुता को समाप्त करने से ही नहीं होती, बल्कि वह कई-कई रूपों में मौजूद होती है। समाज का वर्चस्वी वर्ग जब दूसरे समाज पर कब्जा कर लेता है और उसके संसाधनों को अपने विकास व ऐशो आराम के लिए प्रयोग करता है और वह आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर न रहकर उस पर निर्भर हो जाता है तो उसकी हालत भी गुलामों जैसी ही हो जाती है। संत रविदास ने अपने समाज को बड़ी गहराई से देखा और समाज पराधीन लोगों को अमानवीय स्थितियों में जीते हुए देखा तो उन्होंने उनकी पीड़ा को समझा और अपनी कविताओं में व्यक्त किया। उन्होंने पराधीनता को पाप की संज्ञा दी और कहा कि पराधीन व्यक्ति को कोई प्रेम नहीं करता। पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत । 'रविदास' दास प्राधीन सों, कौन करै है प्रीत ॥

संत रविदास : आजादी व कल्याणकारी राज्य / 77