पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/७६

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संत रविदास : जन कविता का सौंदर्य रविदास व अन्य संतों ने अपनी रचनाओं में आम जनता के जीवन को व्यक्त किया। उनकी आकांक्षाओं को वाणी दी। इसकी कीमत उनको न केवल अपने समय में चुकानी पड़ी, बल्कि बाद की परम्परा में भी उनको साहित्य-स्रष्टा के पद से दूर ही रखा गया । हिन्दी के आलोचक- आचार्य प्रवरों ने उनकी कविताओं को प्रथमत: कविता के तौर पर स्वीकृति देने में हिचकिचाहट दिखाई । समाज में इन कवियों की मान्यता एवं प्रभाव को देखते हुए थोड़ा नाक-भौं सिकोड़कर इन्हें कवि के तौर पर स्वीकार किया भी तो फुटकल खाते में डाल दिया। इनकी कविताओं के सौन्दर्य व कला पक्ष के बारे में विचार न करके इन कवियों की पृष्ठभूमि पर टिप्पणी करते हुए इनको 'अनपढ़, अक्खड़, अनगढ़' कहकर निपटा दिया गया। इन कवियों की रचनाओं की विषयवस्तु तो आचार्यों को खटकती ही थी, इनकी कविताएं भी प्रचलित काव्यशास्त्र व सौंदर्य शास्त्र को चुनौती देती थी। कविता के 'रमणीय', 'कान्तासम्मित उपदेश', 'कोमलकान्त पदावली', भाषा', 'महापुरुषों के आख्यान' पर विकसित काव्यशास्त्र में ये कविताएं फिट नहीं बैठती थी और पूरे काव्यशास्त्र को ही धता बताती थी । इसीलिए आचार्यों के लिए 'श्रेयस्कर' यही था कि कविता को इससे बचाया जाए और इन्होंने कई-कई तर्क गढ़कर इनको कविता के दायरे से बाहर रखने की कोशिश की । त्त आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत इस संबंध में प्रकाश डालता है। उन्होंने लिखा कि 'इस शाखा की रचनाएं साहित्यिक नहीं हैं, फुटकर दोहों या पदों के रूप में है, जिनकी भाषा और शैली अधिकतर अव्यवस्थित और ऊटपटांग है । कबीर आदि दो-एक प्रतिभा सम्पन्न संतों को छोड़ औरों में ज्ञान - मार्ग की सुनी-सुनाई बातों का पिष्टपेषण तथा हठयोग की बातों के कुछ रूप भद्दी तुकबन्दियों में है। भक्ति- रस में मग्न करने वाली सरसता भी बहुत कम पाई जाती है। बात यह है कि पंथ संत रविदास जनकविता का सौंदर्य / 79