पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/७८

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भाषा के माध्यम से ही कविता आकार ग्रहण करती है। भाषा ही मानव- संबंधों का सूत्र बनती है। समाज के शोषक- शासक शक्तिशाली वर्ग भाषा के जरिये ही शोषित-शासित कमजोर वर्गों पर सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करते हैं। शक्तिशाली वर्गों के सांस्कृतिक वर्चस्व को भेदने के लिए लोक-जन भाषा हमेशा कारगर औजार रही है। मध्यकालीन संतों ने अपनी बात कहने के लिए अपनी भाषा भी विकसित की। गौर करने की बात है कि उनके मानवीय गरिमा प्राप्त करने के संघर्ष में जिन भाषाओं में अभिव्यक्ति की वही भाषाएं बाद में पूर्ण रूप में विकसित हुई। संत रविदास की रचनाओं की भाषा जन-सामान्य की भाषा है। जो परम्परागत रूप से व्याप्त कविता की आभिजात्यता को एक झटके में एक तरफ छिटक देती है। 'संत रविदास ने अधिकांशतः हिन्दी में ही पद्य-रचना की है। उनके काव्य में पूर्वी-अवधी का समावेश अधिक है। अवधी शब्दों के अतिरिक्त प्रारम्भ से अंत तक अवधी के कारक-चिह्नों का प्रयोग भी पाया जाता है। कहीं कहीं ब्रज भाषा और खड़ी बोली की विभक्तियां और उर्दू फारसी के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। 2 संत रविदास के समय फारसी भाषा जन भाषा तो नहीं थी, लेकिन आम जीवन में उसका अवश्य प्रयोग होता था, इसीलिए उनकी रचनाओं में फारसी के शब्द भी मिलते हैं। खालिक सिकस्ता मैं तेरा | दे दीदार उमेदगार बेकरार जिब मेरा औवल आखिर इलाह आदम फरिस्ता बन्दा जिसकी पनाह पीर पैगम्बर मैं गरीब क्या गंदा तू हाजरा हजूर जौक इक, अवर नहीं है दूजा जिसके इसक आसरा नहीं क्या निवाज क्या पूजा नालीदोज हनोज बेबखत कमीं खिजमतगार तुम्हारा दर मांदा दर ज्वाब न पावै, कह रैदास विचारा

या रामा एक तूं दाना, तेरी आदि भेख ना । तूं सुलताने सुलताना, बंदा सकिसता अजाना ॥ मैं बेदियानत न जर दे, दरमंद बरखुरदार । बेअदब बदबखत बौरा, बे अकल बदकार ॥ मैं गुनहगार गरीब काफिल, कमदिला दिलतार । संत रविदास : जनकविता का सौंदर्य / 81