पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/७९

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तूं कादिर दरिया वजिहावन, मैं हिरसिया हुसियार ॥ यह तन हस्त खस्त खराब, खातिर अंदेसा बिसियार । रैदास दासहि बोलि साहब, देहु अब दीदार ॥ संत रविदास की कविताओं में जीवन्त चित्रों व बिम्बों के दर्शन होते हैं । लोक जीवन के चित्र स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं। इन बिम्बों व चित्रों के माध्यम से कविता पाठक के सामने खुलती जाती है। मनुष्य के जीवन को संत रविदास बहुत सहज ढंग से उद्घाटित कर देते हैं। संत रविदास के काव्य- बिम्बों में गति है, जीवन के कार्यकलाप हैं। मनुष्य यहां नाचता है, देखता, सुनता, बोलता, रोता, दौड़ता नजर आता है। जीवन की इन क्रियाओं से उनकी कविता सजीव हो उठती है । चलते-फिरते मनुष्य का आना अभिव्यक्ति को सघन बनाता है। उनकी कविता के बिम्ब स्थिर नहीं है, जो उनकी गतिमान- क्रियाशील जीवन दृष्टि की उपज हैं। माटी का पुतरा कैसे नचतु है। देखै, सुनै, बोलै, दौरो फिरतु है । जब कुछ पावै तो गर्व करतु है, गाथा गई तो रोवन लगतु है । मन वच कर्म रस कसहि लुभाना, विनति कया जाय कहुं सयाना । कहि 'रैदास' बाजी जग भाई, बाजीगर सूं मोहि प्रीति बनि आई ॥ संत रविदास ने अपने जीवन की स्थितियों को कविता में ढाला है, जिससे उनकी अभिव्यक्ति विश्वसनीय बनी है। संत रविदास जूती गांठना नहीं जानते, लेकिन लोग उनसे वही करवाना चाहते हैं। अपने जीवन के यथार्थ की ठोस भूमि कविता को विश्वसनीयता का आधार प्रदान करती है । चमरवा गांठि न जनई । लोग गठावै पनही । आर नहीं जिह तोपउ । नहीं रांबी ठाउ रोपउ । लोग गंठि गंठि खरा बिगूचा । हउ बिनु गांठे जाइ पहुंचा। रविदास जपै राम नामा । मोहि जम सिउ नाही कामा ॥ 82 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास