पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/८०

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प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी । जाकी अंग-अंग बास समानी ॥ प्रभु जी तुम बन घन हम मोरा । जैसे चितवन चन्द चकोरा । प्रभु जी तुम माली हम बागा। जैसे सोनहिं मिलत सुहागा । प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा । ऐसी भगति करै रैदास ॥ मध्यकाली विता में कुछ बिम्ब व प्रतीक रूढ़ि की तरह से हैं, जिनका प्रयोग लगभग प्रत्येक कवि ने किया है। चांद और चकोर का बिम्ब उसी तरह का है। शृंगार रस के चितेरों ने विशेष रूप से इसका प्रयोग किया है। संत रविदास ने भी इसे अपने कविता में प्रयोग किया । जउ तुम गिरिवर तउ हम मोरा । जउ तुम चन्द तउ हम भए हैं चकोरा ॥ ऐसे बिम्ब उसी रचनाकार के काव्य में हो सकते हैं, जो कि लोक जीवन से गहराई में जुड़ा हो। लोक जीवन के बिम्बों से यह कविता लोक से सीधा सम्पर्क बनाने में सक्षम हुई। इनकी भाषा में न तो घुमाव है और न अमूर्तता । साफ बात को साफ तौर पर कहने वाली रविदास की भाषा जन पक्षधर कविता की प्रेरणा बन सकती है। संप्रेषण का यहां संकट नहीं है। लोक जीवन उनकी रचनाओं में व्यक्त होता है । भक्ति की गूढ़ रहस्य को व्यक्त करने के लिए या अन्य किसी स्थिति को उद्घाटित करने के लिए वे लोक का ही सहारा लेते हैं। 'बंके बाल पाग सिर डेरी', 'थोथो जानि पछोरौ रे कोई', 'दूध त बछरै थनहु बिटारियो', 'घृत कारन दधि मथै सइआन', 'माटी को पुतरा', कूपु भरियो जैसा दादिरा, जैसी अभिव्यक्तियां लोक-जीवन को सामने रख देती हैं। 'घट अवघट डूगर घणा इकु निरगुण बलु हमार। रमईए सिउ इक बेनती मेरी पूंजी राखु मुरारि ॥ को बनजारो राम को मेरा टांडा लादिया जाइ रे ॥ हउ बनजारो राम को सहज करउ ब्यापारु ।' संत रविदास अपने समय के कार्य व्यापार को भी उद्घाटित कर देते हैं। बैल गाड़ी में सामान भरकर व्यापार करने के लिए लेकर जाने की वास्तविकता प्रकट हो संत रविदास : जनकविता का सौंदर्य / 83